प्रथम नवरात्र भोर की बेला
मन भर फूल गिराता कोई जंगल
उन स्कंधों पर जहाँ मुक्त नयन टीके थे
पाट विस्तृत और मंजिष्ठ गृह दिखते डोलते से
जब गंध की कामना लिए गिरते निर्मम अश्रु
तुम्हारे अजेय अँगूठे पर रुकी मैं
जवा खोल डाले केशों से
एक एक गाँठ ज्यों अरुणिम स्पर्श भरे सघन तिमिर वक्ष में
पूर्ण ही करती थी अर्पण
बस तभी चंद्र ने पवित्र कर दिया मेरा मुख
बस सभी मनोरथ सिद्ध हुए उस क्षण
प्रथम नवरात्र भोर की बेला
मंगल-कामना का सिंदूर बह कर आ गया नखों में
रक्ताभ होती गई देह
ज्यों फिरा ले आए हो देवी को ब्रह्मपुत्र से विजया के दिवस
मुझे भी फिरा ले जाते तुम तो क्या मैं मान न जाती
ज्यों वशहीन हुए नगाड़े नृत्य करते थे हाथों पर।
द्वितीय दिवस निद्रा से उठना
विस्मय से तकती थी मैं अपराह्न पहर
धान से कैसे फुट गई सुगंध
वक्ष में जब नीर न था और
लोटे का जल घेर लिया था रुग्ण मुख ने
छवि पर तेज़ धार और खड्ग उष्ण थी कैसे
जब मैंने एक पहर भी नहीं किया ध्यान तेरा
न युगों ने अपनी वृत्ति लाँघी
नौ दिवस सम्मुख हैं
काँपते मेघों में
द्वितीय दिवस प्रण ही करूँगी ब्रह्मचर्य का
निश्चय ही स्वास्तिक गोदवाऊँगी कोरों के निकट
निश्चय ही अष्टभुजा में लिए
खिलाऊँगी शिशु सदृश्य तुम्हारी सृष्टि
इस दिव्य स्वप्न में नित्य कोमल होंगे कमल
निद्रा से उठ कहूँगी रखो अपनी मंगल-कामना
प्रत्येक वर्ष की तरह प्रथम चंद्र के पूर्व
कहा भी तो नहीं रिक्त कोष्ठों में बाँध कर पल्लव
श्वास में भर कर धूम्र
फिर आओ मंडप में प्रिय
तुम एक वर्ष रहती हो मृत्यु में
मात्र नौ दिन जीवन में।
अत्यंत शुभ मुहूर्त की तृतीया
कास के फूलों से उतर
स्वर्ण काया-सी लोटती तृतीय नवरात्र की भोर
सूर्य यों प्राण फूँकता की शुभ्र नींबू माल में देख लो
तुम गहन तिमिर का मर्दन
बताओ प्रिये
क्यूँ स्वप्न में आमंत्रित करता है ठाकुर दालान मुझे
आगमणी गाते हैं बेल-पत्र
कोचु शाक और पंत भात की भाँति जिह्वा पर रहता है
तुम्हारा अनुराग
प्रवेश की बेला ही हो गया था तर्पण मेरा
ऐसा कैसे हो पाया की मृत देह जी उठी
धुनूची के धूम्र और ढाक की मदिर लय से
आज मृदु है नीर आश्रम सरोवर का
कल, हाँ कल तुम छोड़ आना मुझे भीषण निद्रा में
भागीरथी के तट
अत्यंत शुभ मुहूर्त में संभव है
चंद्र की भाँति लुप्त हो जाए लालिमा कामदूधा काल की
संभव है शमन अग्नि का गाढ़ काजल की भाँति
अत्यंत शुभ मुहूर्त में
अनुरक्ति से ही संभव है विरक्ति।
चतुर्थी स्नान
स्नान को उद्धत ही उठी चतुर्थ नवरात्र की मधुर बेला
समस्त भू किसलय पंक्तिबद्ध टोहते स्वेद करंज के
पीली धोती अटकी बिल्व पत्र की डाली में
ज्यों प्रेम करने को ही बुलाया हो इस स्निग्ध कुंज ने
बिंध देते शूल
एक एक पग बढ़ती भोर को तुम्हारे सरोवर की ओर
पग पग पर झर आते थे मकरंद स्पर्श के
आम्र पत्र ढकी मटकी लज्जा की
बस उलट आई ताल पर
किंचित मेह भर नेत्र में, कर दी वृष्टि
बता पाओगे तुम
क्यूँ प्रसन्न है मन भोग की जूठन धरते मुख में
क्यों रात्रि भर डोल कर माँगती रही
पके कटकल फल
देखो विस्मृति नहीं हुई तुम्हारी
कभी तुम्हारे पगचिह्न देखे थे मेरे मंड में जाते
मात्र प्रतिमा सुसज्जित थी और गहन धूम्र से चढ़े तुम्हारे दृग
किंचित दूर था भोग कदली पत्ते पर तुम्हारे आसन से
मगर तब खींच कर दिया था मैंने
प्राँगण में बँधा नारियल तरुवर तुम्हारे निकट
चतुर्थ बार चढ़ी नौका एक बरस में
स्मरण है तुम्हें
मल्हार के वहाँ देखा था कैसे भरता था वह उदर
मत्स्य कन्याओं का मत्स्य रस से।
पंचम का मेघाछन्न नभ
पंचम नवरात्र का दिवस और मेघाछन्न नभ
कौमार्य के जल से नहला कर ही
प्राप्त किया था शिव और शैशव
ब्रह्मांड अपने वात्सल्य और उन्माद में
यों ही कोई बिखेर नहीं देता प्रीति
मगर उस दिवस अत्यधिक वृष्टि हुई
इसी मास गारो पर्वत से निकलती थी उष्ण धाराएँ
और तुम्हारे नाभि कमल पर प्रतिष्ठित
त्रिपुरारी सुंदरी की छाया से उन्नत हुए गुड़हल
एकांत कामना करते
रात्रि शेष होने को थी जब छूट गया तुम्हारा हाथ
शव की भाँति कंधों पर लिए समस्त भूमि पर
विचरे तुम
रख दिए अंग इतने दूर की बारह भुजाओं से भी
अंक में भर न पाई ये जन्म
प्रदोष-काल के पश्चात ही जल छोड़ेगा ये
अग्निकूप
तब तुम बताना कैसा चंद्र-सा मुख है
मेरी गोद में तुम्हारे बालक का।
षष्ठी का तिमिर मर्दन
प्रखर ताप में अडिग थी तेरे निकट
स्वेद-कण भी दिखता स्वर्ण-सा
कैसी मरीचिका-सा है यह दिवस प्रिये
ऐसी घुली कार्तिक रात्रि
ज्यों दूध में घोंट कर दी थी तुम्हें मिश्री
छह दिनों के संसर्ग में
स्तूप भव्य ही हुए संयम के
कामना स्तंभ ज्यों मेघ चुने को विकल
स्पर्श जहाँ-जहाँ हुए तुम्हारे
उस चंदन वन पर
सर्प लिपटने दिए
मैनें फिर भी न कहा
देखो तो
ताम्बूल पत्र से रँगे होंठ
लज्जा और अपमान कर वर्ण कैसा सजाया
कोई नहीं जान पाया
कितना गहन अंधकार है इस रक्तसिमूल के पीछे।
सप्तम काल की मधुरिम उच्छ्वास
अत्यंत चाव में तिर आए बासी गंधराज
दीपों का धूम्र तक उड़ गया
लपट धवल चक्र-सी ऊभचूभ होती
और सहस्र मुनि जन एक लय में उच्चारते
माँ, तुमि थाको आमार हृिदोए
सप्तम काल की मधुरिम उच्छवास
कानों पर भ्रमर-सी गूँजती रहती
एक एक लट में सहस्र प्रेम-मंत्र
क्या ही सुख है
आर्द्र फूलों का ग्रीवा से गुँथना
मेघ, कमल, सिंदूर और
तुम्हारे सूर्य के अभिमान में तपा जल
कैसा दिखता होगा
सोचो तो ज़रा
जीव, पादप, नदियाँ और नक्षत्र
सभी बिंब तुम्हारी देह के
क्या ही सुख है
एक-एक बिंब पर पाँव दिए
निपट व्योम में उतरने का।
अष्टम की प्रज्जवलित काया
इतनी ही तेज प्रभा होती है
ऋतुमती की
कि भूलवश खिंच आई मैं
धूल-धूसरित पग लिए
पर्वत पर इस दिवस अलौकिक तिमिर छाया
काया पर लाल सूर्य
कितना पुकारा उस पुष्प साधक ने
निर्भय श्वास भर
एक-एक नीलाभ की काँती में ज्यों
दो नेत्रों की आहुति
मैं एक चंपा माल तक न गूँथ पाई माँ
तेरे बहाने
अपनी वेणी के स्वर में
नवम काल की प्रतीक्षा है रक्त जवा का
मौन कटी पर डोलता धीमे
अंतर भी क्या
मात्र ऋतुचक्र के दिवस
तू मुझ में रंगहीन दिखे या मैं
नवपरिणीता-सी तुझ में।
नवम का प्रणयोत्सव
नौ दिवस के समर्पण से कुम्हलाई
आत्म की देह
उठाए नहीं उठती
उजास स्पर्श अंतिम आलिंगन का
कोटि-कोटि रतन मुझ पर ज्यों
वेदना असहाय
तुम्हारे स्कंधों पर विचरण करते
निर्वसन अंग
मनों भारी हैं
धृत की भाँति ज्यों
सब तैर आए मृत्यु में
देह मंड दुखती है मेरी
निमग्न रिक्त कुमकुम से
शंख, अधर, चुंबन से
प्रात: प्रकोष्ठ, मधुसिक्त दीपक से
तुमसे प्रिये,
सुनो मेहों का कोलाहल
गाद भरे भुवन में छोड़ आने को कहते
रंचमात्र बचा ले जाते हैं प्रभा
कुपित कलशों में उलटने
तुम्हारे जगत के
उत्सव ऐसे ही होते हैं।
- रचनाकार : ज्योति शोभा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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