किसी ने फुसफुसाकर कुछ कहा,
भाई, मेरी नाज़ुक राय सुन समझ ले।
ये धूप के दिन हैं
कोई काम तो करो।
कर सको तो एकजुट होकर नदी
पार कर लो।
हो सकता है कि भाग्य खुल जाए
और हम (भव) सिंधु पार करें
आवाज़ गूँजती गई,
और ख़ून में उछाल आता गया
मजनून पसीने से पानी-पानी हुआ
बड़भागी पंचाल पहाड़ ने
गुहार लगाई
और अन्य पर्वतों ने उसके क़दम चूमे
सुक़रात ने ख़ुद को ही ख़तरे में डाल दिया
पत्ते-पत्ते का रंग पीला पड़ गया
नरक का अर्थ ही बदल गया है
और आग की ओखली घोड़े पर चढ़ गई है।
खिड़की के बाहर साँकल की खनखन सुनाई दी
कोई बोला कि कल का भगोड़ा
और छिपा मिल गया
कमरे की खिड़की खोल दो जी
लकड़ी के टुकड़ों में कँपकँपी-सी छा गई
भाई, क्या यहाँ कोई है?
आग की-सी ख़बर फैलती गई
कमरा ख़ाली है
और खिड़कियों पर अर्गला लगी है
यहाँ कब तक कोई किसी का इंतज़ार करे?
यहाँ किसकी साँसें उसके अपने बस में हैं?
ए मेरे टेढ़े-मेढ़े शरीर!
ज़रा ख़ुद से सवाल तो करो,
बिना टेक वाला बर्तन लुढ़क गया।
प्याला बिन पिए ख़ाली हो गया,
और छाया धीरे-धीरे लुप्त हो गई।
पूरी दुनिया का चक्कर लगाकर
दुल्हन को सजाकर भी दूल्हे के
हृदय को शांति नहीं मिल रही
चारों ओर से अपने अस्तित्व पर नज़र डालकर
अब घने जंगल में कोई साया भी नहीं रह गया
चरखे की गें-गें को कब से रोक के रखा गया है।
भट्टी की
गर्मी को भीतर ही रखा गया है
खुले मैदान में पागलपन छा गया है
सागर को अपने अस्तित्व में समोया गया है
अपने अस्तित्व से अनभिज्ञ 'मनसूर' को रास्ते पर सुलाया गया
बात-बात पर कोसा गया उसको,
और पत्थर फेंककर डराया गया उसको,
कान की बालियों के दस्तावेज़ दिखाए गए।
बात से बात निकली,
और हुई बात लंबी।
किसी से कुछ कह दिया उसने,
एक काग़ज़ ऊपर से नीचे तक लिखत से भर दिया गया
और नीचे लिखा गया—‘नार्मल डैथ’।
ऐसा लगा जैसे छत फट गई
और ऊपर से किसी ने पुकारा—ए भाई जी,
हे भाई, कितना कहोगे?
अब नदी को पार करने को आवश्यकता नहीं रही
इसलिए कि सिन्धु नदी अब उथली हो गई है,
उसमें पानी ग़ायब है!
- पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 125)
- संपादक : रतनलाल शांत
- रचनाकार : मोहनलाल आश
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2005
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