मेरी नानी,
मेरी माँ की भी माँ ही थी
मुझे ताउम्र बनाती रही
सँवारती रही
किसी बनती-बिगड़ती तस्वीर की तरह
मुझे समझाती रही
बताती रही
औरतों के ज़िंदा रहने के जोखिम
ख़ुद को बचाने के तरीक़े
ख़ुद को मनवाने के सलीक़े
मेरी माँ की बेवक़ूफ़ियाँ
ख़ुद पर हुई ज़्यादतियाँ
और अपने सब्र की कहानी भी
घर के मर्दों पर रोब था उनका
बिगड़ैल मर्दों को इंसान कैसे बनाया जाता है
यह भी ख़ूब जानती थीं
न्याय की भाषा बोली सब समझती यहीं
वह ख़ालिस लड़ाकी थीं
मगर जब कोई कहता—
ये औरत, औरत-सी नहीं लगती
नानी फिर ख़ुद को भीड़ के लायक़
बनाने के जतन करती
पति की बात मानती
बेटे को बेटा बनाती
बेटी को बेटी
और फिर औरतों-सी
औरत भी बन जाती
उन्हें मेरे साँवले रंग की चिंता रहती
उन्होंने मेरे लिए लड़ाइयाँ भी लड़ीं
हालाँकि वे जीती कभी नहीं
उन्होंने मुझे वे तमाम नुस्ख़े दिए
जिनसे मैं सीधी, सुंदर, सरल बन सकूँ
मगर मैं मनमानी करती रही
फिर वे इस नतीजे पर पहुँचीं
कि मैं भी उनके ही जैसी हूँ
एकदम ख़ालिस लड़ाकी
ख़ैर, एक लंबे अरसे से हम दोनों दूर हैं
मगर आज भी देखती हूँ
ऐसे ही नानियाँ, दादियाँ
बच्चियों में ख़ुद को देखती हैं
और बच्चियाँ हैरानी से उन्हें
- रचनाकार : अनुराधा अनन्या
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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