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नए अन्न की आहट

nae ann ki aahat

विनोद दास

विनोद दास

नए अन्न की आहट

विनोद दास

और अधिकविनोद दास

    वे खड़े हैं

    जो जानते हैं

    पौधों की प्यास

    नींद

    और जड़ों की बेचैनी

    ज़मीन के भीतर का

    जो अँधेरा जानते हैं

    वे खड़े हैं

    और उनके पाँव तले नहीं है ज़मीन

    उनकी आँखों में है

    हलों के फाल-सी तेज़ धार

    छातियों में धधक रही है आग

    उनकी आँखों में है

    हलों के फाल-सी तेज़ धार

    छातियों में धधक रही है आग

    आकाश में

    जब गूँजती है उनकी हुँकार

    पृथ्वी काँपने लगती है

    काँपने लगती है भूपतियों की टाँगें

    भू पर गिर पड़ते हैं

    भूपतियों के नक़ली दाँत

    सख़्त मिट्टी को नरम बनाते-बनाते

    जिन हाथों में पड़ जाती है गाँठ

    हवा में हिल रहे हैं वे हाथ

    गेहूँ की हिलती बालियों की तरह

    वे चाहते हैं

    थोड़ी पृथ्वी

    थोड़ा पानी

    और खुला आकाश

    वे और कुछ नहीं चाहते

    सिर्फ़ चाहते हैं

    जब कोई चिड़िया

    उनके आँगन से उड़े

    उसकी चोंच में दबा हो

    कम से कम एक अदद दाना

    उनकी पकी फ़सल

    हर बार चर जाए

    छुट्टा साँड़

    वे सिर्फ़ इतना भर चाहते हैं

    लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिलता

    मिलती है सिर्फ़ भूख

    बारूद की गंध

    और कारतूस

    उनके रक्त से भीग जाती है

    गांधी की किताब

    रक्त

    जिसमें आग-सी चमक है

    और नए अन्न की आहट

    रक्त

    जो एक दिन अपना रंग दिखाएगा

    और आततायियों के शरीर से

    नक्सीर बनकर फूटेगा

    स्रोत :
    • पुस्तक : ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : विनोद दास
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1986

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