मैं नालायक़ हूँ
और यह मेरा अपना चुनाव है,
अब लायक़ होने की शर्तें इतनी नालायक़ है
कि नालायक़ बनने में ही आदमी का बचाव है।
नहीं जानता कि नालायक़ कब से हूँ,
डॉक्टर बनने के बाद आदिवासी इलाक़े को
कार्यक्षेत्र के रूप में चुनने पर पिता ने नवाज़ा था
शायद तब से हूँ।
‘पिता समझदार हैं’
माँ ने इस पर आजीवन संदेह रखा,
लेकिन इस चला-चली की बेला में
पहली बार उनकी नवाज़िश पर नेह रखा।
जब गाँव की रामरती चाची माँ से लिए गए क़र्ज़ को
तीन साल में तीन गुना लौटाने आई थीं,
और मैंने सिर्फ़ मूलधन लेने वाली बात सुझाई थी।
घर में घोषित नालायक़ी को
मेरे गाँव ने उस समय रूई जैसा धुना था,
जब एक आदिवासी शिक्षिका को
मैंने अपना जीवन साथी चुना था।
मेरी नालायक़ी से परिवार कभी सुखी नहीं हुआ,
यह और बात है कि जिस पर मैं कभी दुखी नहीं हुआ।
उस समय भी नहीं
जब मेरे बेटे की डॉक्टर वाली इच्छा अधूरी रही,
मैं वह डोनेशन नहीं जुटा सका मेरी मजबूरी रही।
तब मेरे बेटे ने अपने दोस्तों से कहा था :
‘मेरे दादा-दादी ठीक ही कहा करते थे
सचमुच उन्होंने एक नालायक़ को सहा था।’
मित्रो,
चाहा तो मुझे भी गया था लायक़ ही बनाना,
कि बीच रास्ते यह ‘समझ’ आ गई
जिसने लिख दिया इस माथे पर
नालायक़ी का यह तराना।
- रचनाकार : रामजी तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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