पीयूष-सागर के कल्लोलों से शोभायमान, सुंदर
पवन में लहराती कल्प-लतिकाओं से अलंकृत,
उत्तम सुखों के आधार द्वीप की महिमा
वृद्ध नाविकों की कहानियों से हमने सुनी ही है।
ये तो कपोल-कल्पनाएँ हो सकती हैं, होने दो। आकाश में
भासुर गोलोक को तो कोई भी देख सकता है।
वह संध्या-रश्मि में अरुणाभ होकर दिखाई देता है—
गगन में घिरी हुई घटाओं के बीच।
सुना है, वह दश योजन लंबा है और उसके अनुरूप ही
चौड़ा है और देखने में गोलाकार है।
उसके चारों ओर स्वर्ण-निर्मित अति विशाल दुर्ग है।
चार गोपुर द्वार हैं, जो हीरे और माणिक्य रत्न
जड़कर बनाए गए हैं।
उसका स्थान सुमेरु पर्वत के तुंग शृंग के भी ऊपर है
और सामने कैलास क्रीड़ा-पर्वत के रूप में दिखाई देता है।
उस पुरी को देखने की इच्छा से एक बार
आनंद के साथ राजहंस पर सवार होकर
व्योम में उड़कर मैं मानस-तड़ाग की
सीमा पर शोभायमान गंधर्वपुरी में पहुँचा।
उस तड़ाग में खेलने वाला
शीतभानु साथ-साथ आ गया।
मैंने शीघ्रता से जाकर तत्कालीन नगर-शासक
गंधर्व राजा के कांचन-प्रासाद में,
निःशंक हरण की यत्न से रखी हुई उसकी
दिव्य शक्तियुक्त दोनों पाद-रक्षाएँ।
उन्हें धारण कर चढ़ने लगा मेघ-सोपान पर—
गोलोकगामी मार्ग में।
मार्ग में देखा भास्करदेव को, चलने के लिए
सज-धजकर खड़े हुए;
समय बताने के लिए इंद्र के कुक्कुटवर को,
सभास्थल के ऊपर कूजन करते हुए;
सप्तर्षिगण को, अंबरनदी में स्नान करके
नित्योपासना के लिए तैयार होते;
और देखा—वैदूर्य-महागिरि, इंद्रनील समतल,
हीरक-पुष्प-शोभित वृक्षवृंद।
इस प्रकार कल्पनातीत भाँति-भाँति के दृश्य
मार्गभर में देख-देख मैं बहुत प्रसन्न हुआ।
अब छिप गया मार्ग एकाएक, समझ में कुछ न आया।
कल्पवृक्ष के पुष्पों से वह आस्तरित था।
इंद्रनील गिरि पर हाथ टेक मैं खड़ा हो गया—
आगे क्या करूँ सोच भी न सका।
कुछ जान नहीं पाया। मोह-मूर्छा से बाधित हो स्तब्धप्राय खड़ा रहा
* * *
चौंककर मैं जागा। भूत-प्रेतों के
अट्टहास सुनकर भय से चारों ओर देखा।
असंख्य सिंहों के आरव के समान
गर्जन करने वाला जल-प्रपात देखकर मैं डर गया।
घोर कानन के भ्रम से मैं काँप उठा।
गहन अंधकार से मैं त्रस्त हुआ।
टूट पड़ेंगी ऐसी दीखने वाली शिलाएँ
दोनों ओर ऊँची-ऊँची खड़ी थीं।
काले मेघजाल ने दिगंत को काला बना दिया।
प्रचंड जगत-प्राण ने सारे संसार को कँपा दिया।
* * *
बहुत दूर से सुंदर मंगल-ध्वनि सुनाई दे रही है।
रंग बदल गया, रौद्रभाव अप्रत्यक्ष हो गया।
आकाश के शिला-कपाट सहसा खुल गए
और यह इंद्रोपल सुंदर विष्णुपद दिखाई दिया।
अनंत आकाश से भी अधिक व्यापक इसमें
कंदुक जैसे सूर्य और शशि झूम रहे हैं।
तारा-पथ पुष्पास्तृत जैसा शोभित हो रहा है।
आकाश देवियों का क्रीड़ोद्यान जैसा दिखाई दिया।
इंद्रधनुषरूपी सुंदर अंबर पहने
व्योम पर दुग्धवारिधि के फेन जैसी दिखाई दीं
धीरे-धीरे आती हुई देव-बालाएँ—
रत्न-स्यंदनों में बैठी, दिव्य मंदार-माल्य धारण किए।
उन रथों पर चँवर डुला रही हैं
सुकुमार हंसावली पंख फैलाकर।
देव-सुंदरियाँ बजा रही हैं वीणा
जिनके तंत्र हैं शीतभानु के कर-जाल
और गान तो सुधा-वर्षा ही है।
आश्चर्यविवश होकर, आँखें खोलकर, अविश्वास
के साथ जब मैंने देखा तो सामने मेरी खाट ही दिखाई दी।
श्वेत चंद्रिका-निर्मित गोलोक तो तिरोहित हो गया
और धूल बन गया उसकी मुसकराहट से बना प्रासाद।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 647)
- रचनाकार : का. मा. पणिक्कर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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