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मुसाफ़िर का भजन

musafi ka bhajan

एन. सुकुमारन

एन. सुकुमारन

मुसाफ़िर का भजन

एन. सुकुमारन

और अधिकएन. सुकुमारन

    एक ही त्रासदी के

    अलग-अलग पात्र हैं

    इसलिए

    मेरा मैं आत्मनिष्ठ नहीं

    हवा की तरह है

    वस्तुनिष्ठ

    आजीवन घूमना ही

    भाग्य में है जिसके

    वह है कितना भाग्यवान

    वह है अशांत

    जो है अशांत, वह है भाग्यवान

    जीवन के सामने वह एक चुनौती

    बस तीन क़दम की है

    ख़ुशहाली की गली

    दुख का मरुस्थल अंतहीन

    मैं हूँ भट्ठी से

    निकली आह

    अँगारे पर गिरा आँसू

    मेरा दृश्य बदल रहा है

    सूख गया है वहाँ

    नदी का संगीत

    घोंसले उजड़ गए हैं वहाँ

    भटक रहे तोते

    यहाँ जलती धरती पर

    पिघल रहीं वनस्पतियों

    मेरी चेतना

    लड़खड़ा रही

    अंधे की तरह

    खो गई जिसकी

    मेले में लाठी

    मन की रात्रि का

    अँधेरा पार कर

    सुनाई पड़ती है

    घड़ी की चीख़

    समय बीतता जा रहा है

    एक और दिन झरता है

    घायल चिड़िया की पलकों की तरह

    उतरता है

    अंधकार

    शाम के कोलाहल को

    अपनी आँखों से चींथकर

    भागता है एक पागल मनुष्य

    हे मेरे महाकाल!

    तुम्हारी छाया में

    निश्चिंत हैं केवल पागल मनुष्य

    भग्नावशेषों से फूटता है मेरा गीत

    घावों की लौह-गंध है शब्दों में मेरे

    अब होंगे कड़वे ही फल मेरे मैदानों में

    यहाँ से चल देना चाहिए मुझे

    संघर्ष सफ़र ही ढाढ़स हमारा

    यहाँ मैंने सुना

    अभी वक़्त नहीं हुआ

    अभी वक़्त नहीं हुआ

    तब भी हवा में दिन-ब-दिन

    बढ़ती जा रही हैं

    चीख़ें आहें

    असंतोष की रुलाई

    आँसू में है नमक की गंध

    मेरी आस्था

    रस्सी पर चलते हुए नट के हाथों का बाँस

    अँधेरा पार कर

    कुछ और सुनाई देती है

    घड़ी की आवाज़

    चिर धुआँ

    इससे तो अच्छा है

    जल जाना एक क्षण।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 87)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवि के साथ एन. बालसुब्रह्मण्यन एवं विमल कुमार
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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