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मूर्खों की दुनिया

murkhon ki duniya

संजय कुंदन

संजय कुंदन

मूर्खों की दुनिया

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    मूर्खों की दुनिया में रोज़ उत्सव है

    पर सीमित हैं ख़ुश होने के उनके तरीक़े

    बहुत कम शब्दों में चलता है उनका काम

    और हँसने की भी बस एक शैली

    उसे इतना नादान मत समझो

    वह जो धँसा बैठा है

    गद्देदार कुर्सी पर एक विदूषक

    वह अपने अज्ञान पर क़तई शर्मिंदा नहीं है

    कितना भयावह लगता है

    अज्ञानियों का आत्मविश्वास

    दीमकों की तरह बजबजाती हुई उनकी भीड़

    खड़ी रहती है इतिहास के रास्ते में

    जब तुम कुछ भारी-भरकम किताबें उठाए चलते हो

    कितना मुश्किल होता है

    उनकी भीड़ को चीरकर निकल पाना

    उन्हें इतना अज्ञानी भी मत समझो

    वे अँधेरा रचना जानते हैं

    बस इसी एक ज्ञान के सहारे

    वे असंभव बना देते हैं

    तुम्हारा एक चौराहे से दूसरे चौराहे तक पहुँचना

    तुम्हारी दुनिया में हिचक है

    संशय है, औचित्य, अनौचित्य है

    उनके पास कोई प्रश्न नहीं

    वे एक ही वाक्य को दोहराते हुए

    पूरा जीवन गुज़ार सकते हैं

    नाक की सीध में लगातार

    चलते हुए भी थकते नहीं

    देखो बिना किसी द्वंद्व के

    कितनी जल्दी उठा लेते हैं

    वे कोई भी ध्वज

    मूर्खता के बारे में अभी तक

    कोई आधिकारिक फ़ैसला नहीं हुआ है

    और जब तक ऐसा नहीं होता

    किसी की हिम्मत नहीं

    कि उनकी आँखों में आँखें डालकर

    कह सके—मूर्ख कहीं के

    हो सकता है

    वे एक सम्मेलन बुलाएँ

    और सर्वसम्मति से तुम्हें घोषित करें

    इस देश का महामूर्ख

    यह सम्मेलन

    निश्चय ही होली के दिन नहीं होगा

    बुद्धिमानो,

    तुम सब एक दिन जेल में

    डाल दिए जाओगे

    जहाँ पहली अप्रैल को तुम्हारे बीच

    फल और मिठाइयाँ बाँटने

    आया करेगा मूर्खों का बादशाह

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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