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मुक़दमा

muqadma

हरे प्रकाश उपाध्याय

और अधिकहरे प्रकाश उपाध्याय

    मेरे कवि मित्रो,

    क्या तुम्हें वारंट नहीं मिला है अभी तक

    समय ने मुक़दमा दायर कर दिया है हम सब पर

    हम सब समय की अवमानना के दोषी हैं

    हम सब दोषी हैं

    कि रात जब अपना सबसे अंधेरतम समय बजा रही थी

    और बोलना सख़्त मना किया गया था

    हम गा रहे थे प्रेमगीत

    हम लिख रहे थे दोस्तों को चिट्ठियाँ

    हम पोस्टर पर कसी मुट्ठी वाला हाथ बना रहे थे

    सूरज जैसा रंग उठाए कूचियों में

    जब सोने का समय था

    हम जाग रहे थे और लिख रहे थे कविताएँ

    जबकि समय ने अँधेरा फैलाया था

    सोने के लिए

    बस सोने के लिए या थोड़ा बहुत रोने के लिए

    हम सब पर अभियोग है

    कि हम शामिल नहीं हुए प्रार्थना-सभाओं में

    रात के अवसान पर

    जब दो मिनट के मौन में खड़ा होना था

    हम चिड़ियों के सुर में चहचहा दिए

    बारिश की, धूप की परवाह नहीं की हमने

    चाहे जैसा भी रहा मौसम

    हम अपनी ज़िद पर क़ायम रहे

    मौसम तो इसलिए बदला जा रहा था

    कि हम ठिठकें-ठहरें और थोड़ा डरें

    खड़ा होकर सिर झुकाएँ

    कभी-कभी जी हुज़ूर जी हुज़ूर किया करें

    और हम कठिन से कठिन दौर में

    ठठा कर हँसते रहे

    हमारे ऊपर इल्ज़ाम है

    कि सुबह या शाम

    हमने कभी तो नहीं किया ईश्वर को सलाम

    हमें चेतावनी दी गई है

    कि हम समय की अवमानना के संगीन जुर्म के अपराधी हैं

    हम क्षमा माँग लें

    समय की अदालत में

    नहीं तो हम पर पहाड़ तोड़ कर गिराया जाएगा

    या बिजली गिराई जाएगी

    मेरे कवि मित्रो,

    क्या तुम्हें वारंट नहीं मिला है

    हमें सब कुछ ख़बर है

    और हम दोस्त की तरह रीझे हैं पहाड़ पर

    बिजली के सामने रखने जा रहे हैं प्रेम का प्रस्ताव

    बिजली गुस्सा करती है तो और चमकदार लगती है हमें

    पहाड़ तो हमारा घोड़ा है

    उसी पर बैठ कर जाएँगे हम चाँद को ब्याहने

    समय

    तुम नदी का पानी हो

    जिसमें हमारी चाँदनी नहाती है

    हम भला क्या डरें तुमसे

    कहाँ है तुम्हारी अदालत

    हमें नहीं मालूम!

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरे प्रकाश उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी समय

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