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मुन्ना

munna

जी. शंकर कुरुप

और अधिकजी. शंकर कुरुप

    1

    कितना आश्चर्य है, मुन्ना!

    इस विशाल विश्व में

    कोई भी तुझसे अपरिचित नहीं!

    सवेरे

    जब तुझे गोद में लेकर

    मैं बरामदे में खड़ा था तो मैंने पाया

    तू मंद हास कर रहा है और

    प्रभात का तारा आँखें झपका-झपकाकर

    तुझसे वार्तालाप कर रहा है।

    मुझे डर है

    कहीं वह तेरा छोटा भाई,

    बुलाकर ले जाए,

    तू जो मेरी आँखों का तारा है!

    मैं अपने प्रेम को ही क्यों बना दूँ

    तेरा पहरेदार?

    फिर देखूँ कैसे मेरा मुन्ना कहीं जाता है।

    2

    कितना आश्चर्य है, मुन्ना!

    इस विशाल विश्व के भीतर ऐसा कोई भी नहीं

    जो तुझे गोद में उठा लेने को तरसता हो!

    यह अंबर

    चंदा को गोद से नीचे उतारकर

    सिर झुकाए मुस्कुराता खड़ा है;

    यह सुनहली धूप

    निज कोमल करांगुलियों से

    तेरा ही मृदुल ललाट सहला रही है;

    यह मल्लिका खड़ी है

    नवल शाखा करों को फैलाए तेरी ओर

    और दिखाकर खिले हुए फूल

    बहला रही है तुझे।

    मुन्ना, क्षमा करना मुझे

    यदि मैं ममता की डोरी में कसी गाँठ लगाकर

    तुझे व्याकुल करूँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 123)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1966

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