मुक्तिबोध—सीने से ये बोझ हटा ले कोई
muktibodh—sine se ye bojh hata le koi
एक
अनजान अँधेरी सुरंगों को चीरती हुई तुम्हारी आत्मा गोली की तरह हमारी कनपटियों के पीछे आ लगी है। सिर में चुनचुनाता हुआ दर्द नहीं हथौड़े हैं जो तुमने हमारे लिए रख छोड़े हैं। रहस्यमय झीलों और खँडहरों के तिलिस्म से तुम सवाल की तरह आ खड़े होते हो और पूछते हो बार-बार, अब तक क्या किया? हड्डियों का ढाँचा है, जिसमें कहीं चेहरा है। पहले यह चेहरा हॉन्ट करता था, अब नहीं करता। यू आर डेड।
हम उजाले में अनवरत चलता जा रहा प्रोसेशन देख रहे हैं। उसमें शामिल लोगों को मालूम है कि हम देख रहे हैं। उन्हें देख लिए जाने का कोई डर नहीं। करोड़ों हाथ इस प्रोसेशन पर फूल बरसाते ख़ून के बहते फ़व्वारों में नहाते जा रहे। तुमने जिसे रात में हत्या करते और दिन में संसद में बैठे देखा था उसे हम संसद में हत्या का प्रस्ताव पारित करते हुए देख रहे हैं। दिन और रात के बीच से अँधेरे का पर्दा उठ चुका है।
दो दशक पहले तक शायद तुम हममें अपराधबोध भर पाते, लेकिन इस सदी ने हमें ढीठ बना दिया है। मूल्य और आदर्श खाकर ज़िंदा रह पाते तो हम फ़ौरन क्रांति कर देते, लेकिन मौत के डर ने हमें अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने से रोक लिया। गढ़ और मठ को तोड़ने का नारा देकर हम ख़ुद गद्दियों पर जा बैठे क्योंकि भूख एक बीमारी थी जो दिन में तीन बार लगती थी। लेकिन हमने तुम्हें हीरो बनाया। तुम्हारी मौत को एक क्लासिक मौत में तब्दील किया। तुम्हें हज़ार बार कोट किया : ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे।’’ क्या तुम ख़ुश नहीं हो?
तुम्हारे समय का मुहावरा ‘तनाव’ हमारे समय तक आकर ‘डिप्रेशन’ में बदल गया है। हम बंदूक़ें देखते-देखते कैमरे के सामने भी हाथ उठाने लगे। हमने अनाज के दाने कम लाशें ज़्यादा देखीं—इसलिए हमारी कोई तस्वीर, कोई सपना टूटा नहीं; मन की राख पर कुछ उगा नहीं। हमें फ़र्क़ पड़ना बंद हो चुका है। हम मुर्दा शरीर हैं जो रोबोट की तरह चले जा रहे हैं, अपने आपको दूर से देखते हुए। तुम चाहते हो हम तुम्हारी मौत मरें! अफ़सोस हम मर नहीं सकते, हम कभी ज़िंदा ही नहीं थे।
दो
पार्टनर, इन नसों में बहता धुआँ देख रहे हो
इसे स्याही में बदलना था एक दिन
अगर भाषा ने मेरे मुँह पर दरवाज़े नहीं बंद किए होते
मुझे मालूम था उसके शब्द पोटैशियम साइनाइड बन चुके
फिर भी मैं उससे सोना हटाकर सच खोजने के सपने देखती रही
उसे शक्कर समझती रही, बेवक़ूफ़
ज़हर से दवा बनाना नहीं आया पार्टनर
धुआँ बर्फ़ बन गया
कविताएँ अवसाद में बदल गईं
स्याही खोकर अपने हिस्से का ऑक्सीजन बचाया मैंने
बोलो, क्या ग़लत किया?
तीन
कैसे लिखूँ, आख़िर कैसे
वह कविता जो जीने नहीं देती न मरने
लगातार एक बेचैनी की तरह पीछा करती हुई अकेलेपन का
ख़ाली पन्ने की बाईस लकीरों को गिनकर बारह सौ बत्तीस करना
जैसे टकराकर लौटना लहरों का वापस समंदर में
लंबा सफ़र, पहाड़, नदी, झरने, रेत
यहाँ तक कि प्यार भी नहीं बना पाया रास्ता उस सोते का
जहाँ से बह जाए बेचैनी
एक कविता के लिए
कभी न ख़त्म होने वाली उदासी से भरना
कैसा पागलपन है
पर क्या करूँ
हर रात सीने पर सवार होकर गला दबाने वाली इस बेचैनी का
जिसे लिखकर ख़ाली हो जाना चाहती हूँ
और
पाती हूँ रोज़ उसका शिकंजा कसते हुए।
चार
लेखक आत्महत्याओं से मरें या हत्याओं से
तमाम किताबें अपनी क़ब्रों के नाम करें
विपुला धरती पर निरवधि काल में
कोई समानधर्मा नहीं होगा
जो उन कृतियों का मूल्य जानेगा
फ़िफ़्थ डाइमेंशन में कवियों की आत्माएँ भटक रही हैं
होमर का हाथ वेदव्यास से टकराता है
और भवभूति का पीला चेहरा येसेनिन से जा मिलता है
सैफ़ो की क़ब्र से आती है आवाज़
कविता को बचा लेना
मरकर भी कविता की ज़िंदगी की आस
तुम्हारी पीढ़ी की यही ट्रैजडी रही पार्टनर
हम तो सुसाइड नोट तक में कविता नहीं
एक लंबी चुप्पी लिखना चाहेंगे!
- रचनाकार : शुभम श्री
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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