कहूँ क्या पैरों तले
कुछ नहीं था ज्यों
न था कोई अवलम्ब
और ऊपर चढ़ना था कठिन।
माना कि थी कुछ भुरभुरी
मिट्टी
पैरों तले
कुछ कोमल घास की झाड़ियाँ भी थीं
उस खड्ड के भीतर
रंगों का अद्भुत जादू देख
आलस्य का अंग-अंग
अँगड़ाइयाँ ले रहा था
वह गहराई देख पैरों की
उँगलियों के पोर सिहरते
और
हम दोनों सटे रहे आपस में
किनारे से नीचे लटकाकर पैर
नशा-सा हुआ उसे भी था
उसकी भी पलकें भारी थीं
हो सकता है इसी कारण
क्षणांश को उसको भी हुई हो
निर्जीव-सी इच्छा
कि फिर वापस ही चढ़ें।
सारा नशा आवर्तों का
नीले-पत्थर बनकर
इच्छाओं पर हावी था
हम दोनों ने लटका-सा
लिया स्वयं को
सतत नीचे देखते रहे निर्निमेष
अनंत तिमिर, रहस्यपूर्ण,
वह अनंत गांभीर्य
फिर-फिर देता-सा
आमंत्रण।
सहसा घास-झाड़ी उखड़ गई।
और भुरभुरी मिट्टी
पैरों तले से खिसक गई
कुछ स्मरण नहीं सिर्फ़
शीतल, सुरम्य, मधुर, कोमल,
कितने महीन- सूक्ष्म रंग!
धीमे-से तल की तरफ़
रिसते हुए इच्छा-विहीन हम
रोम-रोम से फूटता हो ज्यों
एक-एक 'कौंसर नाग'।
दूर कहीं बज रही थीं
शहनाइयाँ
और शून्य में जला रहा हो
ज्यों संगीत
पंक्ति-पंक्ति दीप
और हम रिसते इच्छा-विहीन
ज्यों तल की ओर
इच्छाविहीन
- पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 172)
- संपादक : रतनलाल शांत
- रचनाकार : शफ़ी शौक़
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2005
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