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मुक्ति का दस्तावेज़

mukti ka dastavez

कुमार विकल

कुमार विकल

मुक्ति का दस्तावेज़

कुमार विकल

और अधिककुमार विकल

    मैं एक ऐसी व्यवस्था में जीता हूँ

    जहाँ मुक्त ज़िंदगी की तमाम संभावनाएँ

    सफ़ेद आतंक से भरी इमारतों के कोनों में

    नन्हें ख़रगोशों की तरह दुबकी पड़ी हैं।

    और मुक्ति के लिए छटपटाता मेरा मन—

    वामपंथी राजनीति के तीन शिविरों में भटकता है

    और हर शिविर से—

    मुक्ति का एक दस्तावेज़ लेकर लौटता है।

    और अब—

    शिविर-दर-शिविर भटकने के बाद

    कुछ ऐसा हो गया है

    कि मुझसे मेरा बहुत—कुछ खो गया है

    मसलन कई प्रिय शब्दों के अर्थ

    चीज़ों के नाम

    संबंधों का बोध

    और कुछ-कुछ अपनी पहचान।

    अब तो हर आस्था गहरे संशय को जन्म देती है

    और नया विश्वास अनेकों डर जगाता है।

    संशय और छोटे-छोटे डरों के बीच जूझता मैं—

    जब कभी हताश हो जाता हूँ

    तो किसी शिविर की ओर दौड़ सकता हूँ

    ही किसी दस्तावेज़ में अर्थ भर पाता हूँ।

    अब तो अपने स्नायुतंत्र में छटपटाहट ले

    इस व्यवस्था पर—

    केवल एक क्रूर अट्टहास कर सकता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संपूर्ण कविताएँ (पृष्ठ 45)
    • रचनाकार : कुमार विकल
    • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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