मैं प्रायः शब्दों के साथ दौड़ता हूँ
और प्रायः पीछे रह जाता हूँ,
शब्द आगे निकल जाते हैं,
लेकिन शब्दों का साथ छूट जाने के बाद
मेरी स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है
मैं पिटे हुए सर्प की भाँति लोटने लगता हूँ।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
शब्दों का एक झुँड
चक्रवात की तरह
तेजी से आता है
और मुझे छूकर
सरसराते हुए अदृश्य हो जाता है।
मैं उन्हें पकड़ने के लिए एक बच्चे की भाँति
अपने हाथ आगे बढ़ाता हूँ
लेकिन वह डोर से टूटी पतंग की तरह
मेरी पकड़ से बहुत दूर निकल जाते हैं
और मैं शून्य में घूरते हुए रह जाता हूँ।
प्रायः उनके अदृश्य होने पर
उनकी एक विशेष गंध मेरे नथुनों में भर जाती है
जो सीधे मेरे मस्तिष्क तक जाती है
और उसे वशीकृत कर
उनकी खोज में दौड़ने हेतु
विवश कर देती है।
मैं जानता हूँ
मुझे चिढ़ाने में शब्दों को बहुत मज़ा आता होगा
अन्यथा मुझे छूकर वे क्यों छुप जाते?
और इस लुका छुपी में भी
आँखें मुझे ही सदैव बंद करनी पड़ती हैं,
शब्द मुझे कभी नहीं खोजते,
मुझे ही शब्दों को खोजना पड़ता है।
मैं जानता हूँ कि शब्द विश्वासघाती होते हैं
वे संकट में मेरा साथ नहीं निभाते हैं
फिर भी न जाने क्यों मैं उनकी बाट जोहता रहता हूँ,
उनके स्वागत में पलकें बिछाए रखता हूँ,
उनके पदचाप की आहट पर
मेरी बाछें खिल जाती हैं
और ठीक इसी तरह
उनके जाने पर मेरी आँखें नम हो जाती हैं।
लेकिन यह क्रम कब तक चलेगा?
या सत्य कहूँ तो
मैं कब तक छला जाता रहूँगा?
मेरी सहनशक्ति की भी एक सीमा है!
कभी-कभी शब्दों के प्रति
मन आक्रोश से भर उठता है
और विद्रोह कर बैठता है—
शब्द शब्द होंगे अपने लिए
संपन्न और सक्षम होंगे ठेंगे से,
अब मैं उनके साथ देने के छलावे में
नहीं आने वाला हूँ।
मुझे उनकी चुनौती स्वीकार है,
मैं उनके बिना भी जीकर दिखाऊँगा
उनके बिना भी मेरे भाव-पात्र छलकेंगे।
मुझे लगता है कि
मेरे भाव जगत एवं अभिव्यक्ति की गली में घुसकर
शब्द हुड़दंग मचाते हैं,
मेरा शोषण करते हैं
और अपनी बैसाखी पर चलने के लिए
मुझे विवश करते हैं।
फिर रूप और नाम
भंगिमा और शब्द का अंतर्द्वंद
मन में प्रारंभ हो जाता है
और मुझे लगता है कि इसकी परिणति में
शब्दों का मोह
मेरे मन से धीरे-धीरे जा रहा है,
मैं किसी जाल को तोड़कर बाहर निकल रहा हूँ,
मुक्त हो रहा हूँ।
- रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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