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मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!

mujhe le chalo apne hi des, nadiyo!

प्रांजल धर

प्रांजल धर

मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!

प्रांजल धर

और अधिकप्रांजल धर

     

    एक

    नदियाँ विषय भूगोल का थीं, रच रहीं इतिहास ये।
    महसूसता हूँ दूर तक आकाश के फैलाव को
    डूब जाता झील में निचुड़ा हुआ मेरा बदन
    पार करता आँसुओं की ख़ूब गहरी एक नदी को
    पीरधारा जिसकी कुछ यों
    मानो वह लुप्त हो पथरा गई हो
    सरस्वती की तरह।
    मेरी पथराई आँखों से पाथर ही बहते
    तुम्हारी ही तरह नदियो!
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो! 

    दो

    लुट गए कितने नगर बस रूठ जाने से महज़ इनके
    अब न वह पतवार, न वह धार, सब बेकार।
    साक्षी रहीं ये
    नौका विहार से लेकर दाह-संस्कार तक की।
    ढेर सारी प्रेयसियों ने बहाए हैं पुराने प्रेम-पत्र इनमें
    बहतीं ये कलेजे में उन सबको समोते हुए।
    उनके छोटे-छोटे किंतुओं और परंतुकों को जीते हुए
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
    मुझे जीने हैं एक-एक पल वो जो दर्ज हैं इन पत्रों में।

    तीन

    पावर प्लांट ने झोंक दिया
    नदियों को, उनकी धाराओं को
    किसी चूल्हे भाड़ में।
    बताता हूँ अपने बच्चे को
    कि भाग्यशाली हो बच्चा तुम!
    कि देख लो इन नदियों को बहुत-बहुत ग़ौर से
    कि ये तुम्हारी ही नहीं, तुम्हारी माँ की भी माँ हैं
    अपना राह ख़ुद बनाई थी इन्होंने कभी
    पर अब मिलेंगी यह सिर्फ़ और सिर्फ़
    कॉर्पोरेट किसी बहुमंज़िले म्यूजियम में,
    इससे पहले ही मुझे ले चलो अपने देस, नदियो!
    मुझे मिलना है ऐसे सभी लोगों से
    जिन्होंने अपने रास्ते ख़ुद ही बनाए थे कभी।

    चार

    भले ही दामोदर बन
    शोक थीं बंगाल का ये
    फिर भी जब पूरी दुनिया उनके ख़िलाफ़ है
    तब भी तो नील ने ही पूरे एक
    महादेश को गोद में अपनी ले रखा है।
    ठीक है कि राह बदली कोसी ने बार-बार
    पर पाप भी तो धोए हम सबने किसी गंगा में,
    और कर्मठता की नदी न बहती हाथ की रेखा में
    तो कहाँ जाते कामगार सब!
    और कहाँ जाते वे
    जो इन्हीं की बहुत सख़्त गदोरियों में,
    गहरी रेखाओं में बहने वाली धार से
    रचते हैं अर्णव अपना!
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
    जहाँ से ला सकूँ सारे कामगारों के
    हाथ की सारी मेहनतकश रेखाएँ
    और क़ैद कर दूँ उन्हीं रेखाओं में इस अर्णव को।

    पाँच

    हम सबने प्रवाहित किए सामूहिक मल अवसाद
    नदियों में, मूर्तियाँ भी,
    वे बदल गईं नालों में।
    सोख तो इन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम तक को लिया था
    बहुश्रुत किसी सरयू-जलसमाधि में।
    पर कितना मल सोखें ये हम क़साइयों का!
    हमने ही तबाह किया
    अपने सगे मछुवारे भाई का पूरा जीवन,
    उसका पूरा परिवार, उसका पूरा आधार
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
    मैं तबाह होना चाहता हूँ
    तुम्हारे साथ तुम्हारी ही तरह नदियो!

    छह

    दजला-फ़रात से सिंधु तक की सारी कहानी
    इनकी बूँदों पर देती है दस्तक,
    ये रोती नदियाँ नहीं, मरती जीवन-रेखाएँ हैं
    मानव की नहीं, पूरी बसावट और पूरी सभ्यता की
    इनके इतिहास की किताब के
    धूल सने पन्नों में छिपा है राज
    कि गंगा-पुत्र भीष्म ही अपराजेय क्यों थे
    संपूर्ण महाभारत में!
    कि तथाकथित संप्रभु ने शस्त्र भी उठाया
    तो उन्हीं के ख़िलाफ़!
    पर अफ़सोस
    झेलम, चिनाब, रावी, सतलज और व्यास
    सबमें कराहती है भीतर उठी एक प्यास,
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
    जहाँ सीख सकूँ कैसे उठवाया जाता है
    हथियार किसी सम्प्रभु से।

    सात

    छोड़ो इनकी महिमा का गान
    नहीं तो देवी बन ग़ुलाम हो जाएँगी ये भी
    महज़ एक बुत की शक्ल में,
    ख़त्म हो जाएँगी महज एक प्रतीक बन ये,
    ठीक नहीं होगा यह।
    अपने बचने के लिए ही सही
    आओ, साफ़ कर दें टेम्स की तरह हरेक नदी को
    गंदा भी किसी और ने तो नहीं किया न!
    सरहदें तक न चीन्ह पाने वाली नदियों को
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
    मैं नहीं जानना चाहता अपनी सरहदें-सीमाएँ।

    आठ

    जब उतरेगी कोई सलिला प्रकोप पर
    तब बुन नहीं पाएँगे हम
    पुनर्वास के धागे किन्हीं विस्थापितों के लिए
    नर्मदा का जल-स्तर एक इंच बढ़े
    तो औक़ात में आ जाते हम सभी
    अपनी शासन-प्रणालियों और
    समस्त तकनीक के बावजूद।

    नौ

    सर्पिलाकार बल खाती इन नदियों में
    मेरे जीवन की सुंदरता नहीं
    ख़ुद जीवन छिपा है।

    मेरे स्वप्नों ने टूटने से क्षण भर पहले
    स्नान किया है इनमें
    और टूटकर जन्म दिया है इन्हीं में से किसी एक को।
    इनकी स्नेहिल छुअन में
    पसरे चुंबकीय मोह की वजह से
    खिंचे चले आए सभी लोग
    बसने इन्हीं के किनारे कहीं।
    पूर्वज उनके भी इन्हीं सरिताओं के तटों पर बसे
    जिनके नाम नहीं खुदे किसी इंडिया गेट पर
    लेकिन जिन्होंने नदियाँ बहा दीं अपने ख़ून की
    लाज रखने हित अपनी पागल किसी ज़िद की
    मुझे ले चलो अपने तट पर, नदियो!
    मैं ऐसी तमाम ज़िदों से मुख़ातिब होना चाहता हूँ।

    दस

    कुछ जलते दिए छोड़े हैं मैंने
    एक गुमनाम नदी की धार में
    पुरखों की अस्थियों के साथ ही
    कि वे ले जाएँ मेरा एक ऐसा संदेश
    जिसे मैं किसी के सामने कह नहीं सकता था
    वादा किया है इन नदियों ने मुझसे
    बिल्कुल निजी तौर पर
    कि भले शापित हो जाएँ वे किसी फल्गू की तरह
    जहाँ नाम-ओ-निशान तक न हो किसी पानी का
    कि वे भले बूढ़ी हो जाएँ
    भर जाएँ गाद या नदभार से
    पर वे दम लेंगी संदेशा पहुँचाकर ही,
    मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियो!
    कि मुझे सीखना है वादा निभाना।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रांजल धर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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