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मुझे ग़ुस्सा आता है

mujhe ghussa aata hai

मलखान सिंह

मलखान सिंह

मुझे ग़ुस्सा आता है

मलखान सिंह

और अधिकमलखान सिंह

    मेरा माँ मैला कमाती थी

    बाप बेगार करता था

    और मैं मेहनताने में मिली जूठन को

    इकट्ठा करता था, खाता था।

    आज बदलाव इतना आया है कि

    जोरू मैला कमाने गई है।

    बेटा स्कूल गया है और—

    मैं कविता लिख रहा हूँ।

    इस तथ्य को बचपन में ही

    जान लिया था मैंने कि—

    पढ़ने-लिखने से कुजात

    सुजात नहीं हो जाता,

    कि पेट और पूँछ में

    एक गहरा संबंध है,

    कि पेट के लिए रोटी ज़रूरी है

    और रोटी के लिए पूँछ हिलाना

    उतना ही ज़रूरी है।

    इसीलिए जब किसी बात पर बेटे को

    पूँछ तान ग़ुर्राते देखता हूँ

    मुझे ग़ुस्सा आता है

    साथ ही साथ डर भी लगता है

    क्योंकि ग़ुर्राने का सीधा-सपाट अर्थ

    बग़ावत है।

    और बग़ावत

    महाजन की रखैल नहीं

    जिसे जी चाहा नाम दे दो—रंग दे दो

    और ही हथेली का पूआ

    जिसे मुँह खोलो—गप्प खा लो

    आज

    आज़ादी की आधी सदी के बाद भी

    हम ग़ुलाम हैं—

    पैदायशी ग़ुलाम

    जिनका धर्म चाकरी है

    और बेअदबी पर

    कँटीले डंडे की चोट

    थूथड़ पर खाना है या

    भूखा मरना है।

    मेरी ख़ुद की थूथड़ पर

    अनगिनत चोटों के निशान हैं

    जिन्हें अपने बेटे के चेहरे पर

    नहीं देखना चाहता

    बस इसीलिए उसकी ग़ुर्राहट पर

    मुझे ग़ुस्सा आता है

    साथ ही साथ डर भी लगता है।

    मरते समय बाप ने

    डबडबाई आँखों से कहा था कि बेटे

    इज़्ज़त, इंसाफ़ और बुनियादी हक़ूक़

    सबके सब आदमी के आभूषण हैं

    हम ग़ुलामों के नहीं

    मेरी बात मानो—

    अपने वंश के हित में

    आदमी बनने का ख़्वाब छोड़ दो

    और चुप रहो।

    तब से लेकर आज तक

    मैं चुप हूँ

    सुलगते बुत की तरह चुप।

    लेकिन जब किसी कुठौर चोट पर

    बेटे को फफकते देखता हूँ तो

    सूखे घाव दुसियाने लगते हैं

    बूढ़ा ख़ून हरकत में जाता है

    और मन किसी बिगड़ैल भैंसे-सा

    जूआ तोड़ने को फुँकार उठता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 39)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : मलखान सिंह
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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