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मुग़लसराय जंक्शन का सर्वोदय बुक स्टॉल

mughalasray jankshan ka sarwoday buk stall

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय

मुग़लसराय जंक्शन का सर्वोदय बुक स्टॉल

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

    पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी सीटियों के बीच

    अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है किताबों के साथ

    उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते हैं

    मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ

    अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर लौटता हूँ

    जैसे माँ लौटती है अपने मायके

    दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव

    मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से

    यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल सम पर गए हैं

    रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है

    और सर्वोदय बुक स्टॉल में चलती बहस

    एक तान में।

    किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट

    और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी

    प्रकाश हर ग्राहक की स्मृति को सँजो लेता है

    अपनी डायरी में

    और ख़ुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा

    इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है

    जहाँ हर कोई करता है जुगाली

    और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर रिसने लगता है

    मैं जब बढ़ता हूँ आगे

    स्मृतियाँ भी होती हैं साथ

    याद आती है माँ की वो बात

    कि जब वह जाती है अपने मायके

    वहाँ के धूल और फूल के साथ बँध जाती है

    वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है

    पाँव थिरकने लगते हैं

    मन कुलाँचें भरने लगता है

    पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने

    उस संगीत की मिठास में

    मैं चुपके से घुल जाता हूँ

    जैसे सब्ज़ी में घुल जाता है नमक।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 38)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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