संदर्भ : कुछ मुँह फेर लेते हैं और कुछ अपनी आत्मा पर बोझ बनने देते हैं। क्या नहीं देखा है हमने सशक्त लोगों की तरस का फल! आख़िरी क्षण ये एक कैंसर पीड़ित के ज़रूर हैं, लेकिन इसके पीछे छिपा सत्य केवल इसी घटना से बँधा नहीं है।
Pity me that the heart is slow to learn
What the swift mind beholds at every turn.
— Edna St. Vincent Millay
अमृता
फुसफुसाहटों से ही गला उसका तर होता रहा
और बीड़ी की तलब से मेरा सूखता रहा
निश्चित ही दुरूह रहा होगा सब
कि अटक रहीं नहीं साँसें इसकी
अब तक जहाँ भी साँस ली होगी मैंने
इसे यक़ीन है तेज़ाब ही भरा था उन हवाओं में
बेचैन संतान
मुस्कुराहटों के सिवा कुछ न दिखा मुझे उसकी आँखों में
जीवन की कुछ अवस्थाओं का स्वर्णिम कहा जाना
हर उम्र में एक-से संशय का भागी बना—तीव्र
ये कैसी अवस्था हुई…
सामने तिल-तिल कर घिसी जा रही
और मुस्कान ही दिखे जबकि
क़दम-दर-क़दम दूर जा रही हो
कैसा सुनहरा समय…
अपने ही ख़ून से ऐसा दूर हुआ
लाल धब्बे रह गए
बस जमे हुए चादर पर
गंध तक नहीं बची
केवल आँखों से छलकती मुस्कान
सुबह के दु:स्वप्नों में रिसती रही
वसंत ख़ैरात देता है—गर्मियों में पसीना पोंछने के लिए—
एक स्वर्णरंजित काल।
क्या तेज है इसमें…
जनक है प्रकाश अंधकार का।
वर्तमान है दृष्टिहीनता।
शक्ति
अंश है प्रभात का प्रकाश सर्वश्रेष्ठ और
श्रेष्ठता है उपासना ऐसी शक्ति की
अँजुली भर तीन बार—नमस्ते सूर्याय
आँगन में साष्टांग पश्चात्
तुलसी को लोटे का संपूर्ण जल प्रवाहित—ओम्।
चार निवाले भर का देह, बाक़ी बालकों के पेट में…
पुण्य है किसी भविष्य की उज्ज्वलता में अपना हाथ
कि बूँद-बूँद को तरसे पौधे के भाग्य मूसलाधार आ जाए
और राम नाम का गुण मेरी आत्मा में घर कर जाए
लेकिन धीरे-धीरे ही
किसी प्यासे को घोंट देना ध्येय नहीं है मेरा।
विकास है सिर्फ़…
मेरी छत्रछाया में आए सभी के लिए—जीवन—
श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम।
बेचैन संतान
सिर्फ़ आप के लिए ज़रूरी होता है वर्तमान।
आप—भविष्य का रचयिता—ऐसा हरामी है
कि हर पल अपना अतीत दफ़नाए देता है
प्रमाण भर के लिए। रचना (ख़ुद आप ही)
वैधता की पुचकार गालों पर,
चाहती है थपथपी पीठ पर रीतिबद्धता की।
सर्वश्रेष्ठ रचना—मेरा आप।
अमृता
ग़ैरज़रूरी वो प्रकरण हैं जो नसों में उबाल रहे लहू की आँच मद्धिम करे। उफनता दूध पतीले से अक्सर गिर जाता है।
बहुत बार ऐसी बर्बादी मेरे हाथों ही हुई है लेकिन
धीमी आँच से हुई बर्बादी
मिट्टी पर मलाई सड़ने से बेहतर नहीं हो सकती।
विलास भोगने वालों की हर तबाही से हूँ अवगत।
ऐसा ज़रूर है कि दो वक़्त की रोटी में ख़ुशी नहीं
किसी को भी, लेकिन नसीब को कोसना
हँसी-ठहाकों में ही पसंद आया है अब तक।
कई लकीरें उभर आई हैं माथे पर।
रात नींद में खींच गया होगा कोई।
माथे पर शिकन नसीब कोसने वाली
मुझ गदहियों के मज़ाक़ पर अंकुश लगा जाता है।
शायद इसीलिए मेरी बातों से
अब बच्चे-बुच्चियों की आँखें मुस्काती नहीं।
तलब भी बड़ी चीज़ है लेकिन।
पूरी ना होने पर कितनी-कितनी यादों से भर जाती है।
मुझे लग रहा है मानो
एक रात भर में ही ये निशान नहीं खिंचे हैं।
बेचैन संतान
हीन दृष्टि बस अतीत के लिए,
नहीं… स्वप्न में भी…
नहीं… ग्लानि… सिर्फ़ ग्लानि में।
अधूरा शहर, रास्ते अधूरे।
बेमंज़िल शहर, अगणित दूरियाँ।
भागते भागने के लिए लोगों में एक मैं
केवल मैं जिसके पाँव चलते नहीं
दाहिना आगे, बायाँ पीछे
और पीछे थम रहा है दाहिना
आगे बायाँ।
या तो कड़ी धूप है, या साया है बादलों का।
मैं जानता हूँ आँसू थम नहीं रहे
आश्वस्त हूँ बंद कर दिया है मेरी नाक ने साँस लेना
ना आज ना किसी आज कभी
कुछ छिना है मुझसे
कोई नहीं… मरा कोई भी नहीं
ये शोक उस ज़िंदगी के लिए है
जो ख़त्म हुई भी और तत्काल रुलाकर नहीं गई।
अमृता
अकेले मरने भी नहीं देता कोई।
अंत तक जीवित रखना—
मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धि।
कितना आसान है!
इतनी डिग्रियाँ लेकर बैठे हैं, लेकिन
पल्ले पड़ती नहीं किसी के।
एक, सिर्फ़ एक।
रात सोने से पहले।
या नींद में ही।
ख़ून उफनने देना कैसी मानवता है?
नसीब तड़प उपजाने के फेर में थी अगर
मेरे नशे को अपना खाद तो न बनाती।
ख़ैर देर-सवेर ही
मानवता के इन संरक्षकों को
सदबुद्धि यदि मिल जाए
शायद
मेरे नसीब को
मुझसे छुटकारा मिल जाएगा।
एक
इनके लिए
सिर्फ़ एक सुई का सवाल है बस।
देर रात नींद में ही सही।
शक्ति
जिजीविषा है अपने केश सुरक्षित रखने की ज़िद।
और देख पाना असंभव है।
आँखों देखी पीड़ा असहनीय है इन आँखों के लिए।
यहाँ गंगा बसती है—सिसकियाँ टूटने से पहले ही बाँध टूट जाते हैं।
जीवन भर का कष्ट और मौत भी कुंभीपाक से बदतर।
आसान नहीं देखना
अपने ही लहू में ऐसा उबाल।
जाहिलों के साथ बियाबाँ में त्याग दिया
बच्चे हो जाने के बाद पति ने ही।
असफल अंकुर की अपाहिज उपज
अब बड़े हो गए
लेकिन पिता के कर्म पुश्तों मिटाए नहीं मिटते।
पोतों की आवाज़ भी
उसी भयावह गूँज में डूबी निकलती है।
अहो दुर्भाग्य!
कि शक्तिहीन रही नारी।
कैसा सत्य रहा जीवन! कैसा कटु सत्य!
कहाँ-कहाँ पी रही है अपनी पीड़ा!
ये कैसी चक्षुस्मिता
कि ख़त्म हो जाए सारा यथार्थबोध।
ऐसा हनन!
तुम्हारी किसी भी पीड़ा को माफ़ करने की शक्ति मुझ में नहीं। सबसे
बड़ी—तुम्हारी संतानों को भी नहीं।
अमृता
मेरी दुधमुँही बेटी!
यूँ निकल जाना अपना दुःख छिपाना नहीं हो सकता।
बरसात में रोने वालों के आँसू सबसे प्रत्यक्ष होते हैं।
नहीं जानती मुझे किस बात पर ग़ौर करना चाहिए।
एक ऐसे संसार की आदत है जिसमें
सभी अपना दर्द ख़ुद ही महसूस करते हैं
मिसाल ये कि कुछ साल पहले
गीदड़ों ने मेरी बकरी को घायल कर दिया था।
घाटा मैंने महसूस किया लेकिन
कोसों दूर रही उसकी पीड़ा से,
कि गीदड़ों ने न मेरी देह थोड़े नोची
न वो मेरा बच्चा उठा ले गए।
अगली कुछ रातों तक
आक्रोश का कारण बना उसका मिमियाना।
क़साई को बेच देने की सोच
ज़हन में हफ़्ते भर रही लेकिन ऐसी ही किसी शाम
गीदड़ों के लिए मैंने उसे आज़ाद कर दिया।
यही मेरा संसार है। बेबूझ लोगों का। क्रूरता का।
चैन से लेटने आई थी यहाँ।
आई थी कि खाने के लिए अपनी रोटियाँ ख़ुद न बेलनी पड़ें। बेचैन मेरी संतानें आश्वस्त रहें।
इलाज मेरा ध्येय शायद ही था।
इस छत्रछाया में रहना मेरा ध्येय नहीं ही था।
अपने ख़ून से लिपटने आई थी लेकिन अब और नहीं
मैं गीदड़ों के पास ही ठीक हूँ।
बेफ़िक्र हूँ,
अपनी निश्चितता के सहारे।
- रचनाकार : उपांशु
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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