जोशीमठ की दरारें

joshimath ki dararen

सपना भट्ट

सपना भट्ट

जोशीमठ की दरारें

सपना भट्ट

और अधिकसपना भट्ट

    हमें इस कराहती

    पृथ्वी की आह लग गई है

    और इस आसन्न अपघात का अट्टहास

    प्रलय की किंवदंतियों के पौराणिक दस्तावेज़ों में दर्ज है

    जीवन हाथों से छूट रहा है

    मिट्टी, वन और पानी के वैभव छीज रहे हैं

    देवता प्रतिमाओं से कूच करने को हैं

    पर्यटको!

    अब तुम क्या देखने आओगे पहाड़!

    श्रद्धालुओ!

    अब किसको करोगे चरणतल नमस्कार

    किसके आगे शीश झुकाओगे?

    बेहिसाब निर्माणों

    और वनों की अंधाधुंध कटाई से दरकते पहाड़ से

    घुमंतू पर्यटकों का कोई वास्ता नहीं

    ही आस्था में डूबे भोले-भाले श्रद्धालुओं का...

    उन्हें क्या वास्ता कि

    जिस पहाड़ के नीचे सुरंगें खोदी जा रही हैं

    बाँध बाँधे जा रहे हैं

    उसी पहाड़ के ठीक ऊपर बसी है

    हमारे बाप-दादाओं की सिसकती हुई विरासत भी

    वे आएँगे प्रतिवर्ष

    घोड़े, खच्चरों और भारी वाहनों में चढ़कर

    धँसती हुई भूमि को रौंदकर छुट्टियाँ मनाएँगे

    वे आएँगे

    नारियल, भभूत और कुंड में पके भात की पोटली बाँधे

    अपने ख़ून में आस्था के लोहे को भुनवाएँगे

    हम किससे कहेंगे कि

    मनोरंजन नहीं है टेलीविजन पर किसी की

    छत, आँगन और दीवार पर पड़ी दरार का दिखना

    कि टेलीविजन से संज्ञान में सिर्फ़ ख़बर आती है

    संवेदना नहीं

    उठो हे आदि शंकराचार्य

    जिस कल्पवृक्ष तले समाधिस्थ हो तुम युगों से

    उसकी जड़ों में विकास का दीमक लग गया है

    इससे पहले कि

    शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के एजेंडे

    विकास के प्रेत में बदल जाएँ

    इससे पहले कि

    सांत्वनाओं के खोखले आश्वासन

    समूचे पहाड को साबुत निगल जाएँ

    उठो और सबको बताओ कि

    विस्थापित और लुटी-पिटी जनता का

    पुनर्वास तो फिर भी संभव है

    विलुप्त होती पहाड़ी संस्कृति और

    विराट आदिम सभ्यता का कोई पुनर्वास संभव नहीं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सपना भट्ट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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