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मोती

motee

जी. शंकर कुरुप

और अधिकजी. शंकर कुरुप

    जीवन-सागर में

    जब खारे आँसुओं से निर्मित महान् घटनाएँ

    उमड़ती-गरजती है

    तो धीर-साहसी कर्म-निरत हृदय

    अपना रक्त स्वयं बहाते हैं

    और उससे प्रवाल का निर्माण करते हैं।

    छोटे राष्ट्रों को निगल-निगल कर

    जो मोटे बन गए है बड़े राष्ट्र

    उनकी चंचल ध्वजाओं में चोइण्टे

    चमक रहे हैं।

    जीवन-सागर सीमातीत है सबके लिए

    किंतु काल के लिए है वह मात्र चुल्लू भर;

    इस सागर की गहराइयों के किसी कोने में

    शाश्वत शांति की खोज में

    टटोलवाँ चला रहा है कवि-हृदय

    स्वयं सीपी बनकर।

    जाने क्यों जीवन बीच-बीच में चुभो रहा है

    सत्य के नुकीले कण छुप जाते हैं जो गहरे

    जितना ही छटपटाते हैं उन्हें निकालने को बाहर

    घुसते जाते हैं उतने ही अधिक अंदर बढ़ाते हैं दर्द।

    हे मेरे हृदय,

    इन मूक वेदनाओं को लपेट दो अपनी मुग्ध भावनाओं से

    ताकि बन जाएँ वे सब की सब मोती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 271)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1966

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