शीतकुंड में नहाई अमावस की स्याह रात
ठीक एक बजा है
मैं अपने कमरे में बंद रज़ाई में दुबका हुआ
ख़राब है मौसम, माहौल में घुटन
बाहर कोई बेचैन निकला हुआ सड़क पर
मैं आता हूँ खिड़की के पास खोलता हूँ खिड़की का शीशा
जैसे इसी पल के लिए तैयार ठीक खिड़की के क़रीब घात लगाए सर्द रात
कड़कड़ाती ठंड का ज़ोरदार थप्पड़
नाक पर हुआ हिमपात, गालों पर पाला
कटकटाती बत्तीसी, पूरे बदन में फैलती धड़धड़ी...
(इस रात के लिए चाहिए दहकता अलाव)
पसरी चमचमाती लंबी सड़क पिंकसिटी के हेरीटेजी परकोटे से
राजस्थान की नवनिर्मित विधानसभा तक
खंभों की रूट लाइन
मस्तक पर दमकता आभामंडल
प्रकाश की झील में तैरती राजधानी
बाहर, बेचैन बूढ़ा
नकारता सजी-धजी व्यवस्था की रोशनी को
एक हाथ में लालटेन दूसरे में पोस्टरों का बंडल
पोस्टर चिपकाता जाता है हर खंभे पर
हाँ, पोस्टर, जो दूर से नज़र आते हैं प्रश्नचिह्न
इबारत से भरे हुए लेकिन पढ़े नहीं जाते
बूढ़ा नहीं देखता शहर का उजास
वह उतरा हुआ सधे गोताख़ोर-सा
रात की काली गहराइयों में
रात का ठीक एक बजा
वक़्त जैसे उसी में फँसा
मैं बंद, कमरे में-भविष्य की चौखट पर आँखें जमाए
दीवार घड़ी की सुई भर्ती समय के अस्पताल में
बेड नंबर एक पर डीप कोमा में
मैं झाँकता हूँ खिड़की के बाहर आसमान में
आसमान डूबा है शून्य के असीम सागर में
सागर की सतह पर बिखरे हुए असंख्य निराश नक्षत्र
उन्हीं में से एक उल्कापिंड-सा
लुढ़कता है वह बूढ़ा-खंभा-दर-खंभा
काली बर्फ़-सी जमी हुई रात
चारों ओर ख़तरनाक सन्नाटा
कुत्तें भौंकते हैं बूढ़े पर या
रात के ख़ौफ़नाक तेवरों पर अथवा
मुझ पर?
नहीं, मुझ पर तो नहीं
मैं अभी सड़क पर उतरा भी नहीं
क्या कुत्तें भाँप सकते हैं :
कमरे में बंद किसी बेचैन दिमाग़ के इरादों को?
खिड़की पर सिर टिकाए मैं किसी पेरानोइया में
हाल्यूसिनेशन में
यूटोपिया में?
माथा गरम और ठंडा बदन
खिड़की का शीशा बंद करता हूँ
ऑफ़ करता हूँ बल्ब का स्विच
घुस जाता हूँ रज़ाई में
बुझा बल्ब घूरता है
शहर की रोशनी को
‘सटपड़... सटपड़...’
बूढ़ा घूम रहा शहर की सड़कों पर
रात आगे नहीं खिसकती
घड़ी की सुई ज्यों की त्यों
कुत्ते भौंक रहे हैं दूर, मगर आवाज़ बहुत निकट
जैसे मेरी रज़ाई पर चक्कर काटती
कान बंद करता हूँ उँगलियों से
छाती से सटाता हूँ दोनों घुटने
घुटनों तक ले जाता हूँ माथा
माथे में छिपी हुई डरे हुए ख़रगोश-सी मेरी चेतना
बंद है भीतर से किवाड़ की कुंडी
आँखें मूँदता हूँ
छिपाता हूँ स्वयं को स्वयं में
लेकिन नहीं,
किसी ने बाहर की साँकल खड़खड़ाई
हूँ, कौन?
रात के एक बजे!
शहर की रोशनी की कौंध
रात का अँधेरा
कुत्तों की आवाज़ या वह बूढ़ा?
नहीं, कोई
क्या सपना?
मगर नींद तो आई नहीं
समझना चाहता हूँ भेद को
दुभेद्य नहीं जो
पर, पेंच है बहुत टेढ़ा
रात ठहरी हुई-जैसे किसी ने कील दी
खड़ा या चल रहा
वह कंकाल-सा बूढ़ा
पूछना चाहता सभी दमकते खंभों से :
‘अँधेरा बहुत भारी
पसरी रात गहराती
खड़े तुम किसकी चौकसी में?’
मैं खोलता खिड़की
देखता रात के आकाश में तारे उनींदे
जागने की विवशता है रात भर
मैं सो नहीं पाता
महसूस करता ठंड से संघर्ष करती उष्णता
है कहीं मेरे वजूद में
खड़ा होता
निकलता सड़क पर
बूढ़ा कहाँ?
अँधेरे की किसी खोह में कुत्ते ग़ायब
व्हिसिल बजती है
आवाज़ : ठक-ठक, ठक-ठक...
पुलिस की गश्त?
नहीं,
नेपाली चौकीदार???
नहीं रे,
सिपाही ही है
एक नहीं दो, दो के पीछे दो-दो, उनके पीछे परेडनुमा लंबा जत्था।
‘कौन है
क्या कर रहा सूनी सड़क पर?’
प्रश्न का प्रश्न बनकर ठिठकता मैं
‘शांत है शहर
सब कुछ ठीक-ठाक
और यह पागल या उत्पाती
पकड़ो इसे, भाग न पाए!
ख़तरनाक होता है अँधेरे में जागने वाला’
खिसक जाता हूँ लोहे की रेलिंग के पास
धँस जाता हूँ अँधेरे झुरमुट में
व्यवस्था के गणित के पहाड़ से लुढ़कता सिफ़र-सा
गिर पड़ता हूँ किसी घाटी-गली की सुरंग में
कुत्ते भौंकते हैं चारों और
(कड़ी पाबंदी, रात में ज़बर्दस्त चौकसी)
अँधेरे के बीहड़ में जुगनू-सा चमकता वह बूढ़ा
किसी घोर षड्यंत्र के सींखचों से बाहर झाँकता
इशारे करता मुझे
फुसफुसाता है :
‘स्सऽऽऽ
ध्यान से सुनो
दिन भर मैं भी रहता हूँ ज़िंदगी के जुगाड़ में
रात भर पोस्टर चिपकाता हूँ
कोई जुगत बिठाता हूँ
सही-सही बताओ,
क्या तुम्हें भी विचार आते हैं अँधेरे में?
शायद दिन में व्यस्त रहते हो
रात में ही सड़कों पर उतरते हो...’
बूटों की चढ़ती आवाज़
बूढ़ा ग़ायब
सड़क की छाती पर
हथियारबंद पुलिस, बख़्तरबंद गाड़ियाँ
चारों ओर सायरन, ड्रेगॉन-लाइट के फ़्लैश...
मैं हाँफता भागता हूँ
एक टूटी दीवार फाँदता
बहुत दूर का चक्कर काटता
ढूँढ़ता हूँ अपना घर शहर के हाशिए में
हाँ, कमरानुमा मेरा ही घर, उसमें कोटर-सा मेरा ही बिस्तर
दुबकता हूँ ठंडी हो चुकी रज़ाई में
कड़ाके की ठंड-मेरे बाहर, मेरे अंदर
शहर में पुलिस का भारी बंदोबस्त
कड़ी निगरानी
सघन तलाशी अभियान
‘मैं पकड़ा नहीं गया’
एक नपुंसक आत्म-संतोष
बाहर
गोली चलने की आवाज़
सड़क काँपती है
सहमी काली रात
घड़ी की सुई की अंतिम साँस
सुई नीचे लटक गई
बेजान पेंडुलम-सी
बूढ़ा था गोली का टारगेट
पर अचूक गोली चूक गई
स्याह रात के ख़ौफ़नाक तेवरों से लोहा लेती हुई
जलती रही उसकी लालटेन
सुबह के इंतज़ार में...
- रचनाकार : हरिराम मीणा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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