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मृत्यु सूक्त

mirtyu sookt

कुमार मुकुल

कुमार मुकुल

मृत्यु सूक्त

कुमार मुकुल

और अधिककुमार मुकुल

     

    एक

    हे मृत्यु,
    कौन हो तुम 
    कहाँ से आती हो 
    चली जाती हो कहाँ...
    कैसे तुम, महाबली और बलि पशुओं को 
    समदृष्टि से निहारती गुज़र जाती हो?

    दो

    हे मृत्यु, 
    कहाँ निवास है तुम्हारा
    हमारे ही भीतर रहती हो तुम 
    या बाहर कहीं से आकर
    हमारे जीव का हरण करती हो?

    तीन

    हे मृत्यु,
    क्या तुम्हारी कोई पुकार है 
    गर्जना, हहास और तांडव करती 
    आती हो तुम 
    या चुपचाप विषाणु-सी प्रवेश कर 
    सुला देना पंसद है तुम्हें?

    चार

    हे मृत्यु,
    तुम क्षण हो
    या जीवन हो पूरा
    जन्म लेते ही
    समेटने लगती हो, अपनी उम्र?

    पाँच

    हे मृत्यु,
    निष्करुण हो तुम
    या तुम्हारा आतंक ही
    अविरल स्रोत है, करुणा का?

    छह

    हे मृत्यु,
    हम तुम्हें गहन अंधकार की तरह देखते हैं
    पर तुम कड़ी धूप में लू की लहर बन
    उसी तरह त्रस्त करती हो
    जैसे कालरात्रि में शीतलहर बन?/

    सात

    हे मृत्यु,
    कैसे तुम हमें
    अपने आग़ोश में आने को
    प्रेरित करती हो
    कि राम को अश्रुपूरित नेत्रों से देखती सीता
    धरती में समा जाती हैं
    और लक्ष्मण के वियोग में राम
    उतर जाते हैं सरयू में? 

    आठ

    हे मृत्यु,
    तुम सदा हमें भयाक्रांत करती हो 
    पर जब भी कोई मुस्कुराता हुआ 
    विष के प्याले को 
    अपने होंठों से लगाता है
    तब तुम उसका स्वागत कैसे करती हो? 

    नौ 

    हे मृत्यु, 
    हर क्षण लटकती तलवार-सी
    सिर पर टँगी मत रहा करो
    गहरे आतंक से
    यह सर
    अक्सर फिर जाया करता है
    जो तुम्हारी महत्ता को कम करता है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : चयनित कविताएँ (पृष्ठ 113)
    • रचनाकार : कुमार मुकुल
    • प्रकाशन : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
    • संस्करण : 2022

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