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मेज़ का गीत

mez ka geet

इब्बार रब्बी

इब्बार रब्बी

मेज़ का गीत

इब्बार रब्बी

और अधिकइब्बार रब्बी

    इसे मैंने भोगल से ख़रीदा था,

    पचास रुपए में दस साल पहले;

    यह एक मेज़ है।

    लेटिए मत यह चारपाई नहीं है।

    इसके चार पैर हैं

    एक अदद सीना है

    तना हुआ पेट पीठ सब एक

    यह बढ़ई का पसीना है।

    नहीं यह एक मेज़ नहीं है।

    पेड़ की ममी है,

    मौसम का जीवाश्म,

    काठ का संस्मरण है।

    नहीं यह लकड़ी नहीं है,

    यह पृथ्वी है, जिसे फाड़कर काठ निकला था,

    हवा में आठ-आठ हाथ उछला था।

    हाँ, यह मिट्टी है, गोबर है, पत्थर है।

    पर यह अभी जो है सामने वो है,

    सिर्फ़ एक चौपाया;

    जिसे अपने मज़े के लिए नहीं

    तुम्हारी सुविधा के लिए मेज़ कह रहा हूँ।

    तो यह तय पाया कि यह जो सामने है,

    यह वही है जो पहले है, बाद में।

    यह लकड़ी है मान लिया,

    पृथ्वी भी है मान लिया,

    लेकिन फ़िलहाल सिर्फ़ मेज़ है;

    कुहनियों से दबी टाँगों को झुलाती हुई।

    कुर्सी से संपर्क के लिए आतुर

    आदमी को पुल बनाती हुई।

    क्या बात है!

    बिना कुर्सी के यह कुछ नहीं है।

    वह इसे ढूँढ़ती हुई आती है,

    यह बुलाने नहीं जाती है।

    जिसने आदमी को रगड़ा है,

    वह इसी का बछड़ा है।

    मैं एक फुनगी पर बैठकर

    दूसरी फुनगी पर लिख रहा हूँ।

    मैं एक ठूँठ की छत पर टिका,

    दूसरे ठूँठ की छत से बात कर रहा हूँ।

    मैं दो भूतपूर्व पेड़ों के बीच,

    एरियल-सा लटक रहा हूँ।

    मैं कितना भला दिख रहा हूँ।

    इस बंदरगाह पर घरेलू

    अख़बार उगे, और रवाना हुए

    इस मेज़ की खाड़ी से दोस्तों को गाली,

    प्रेमिका को आँसू भेजे।

    यहाँ अख़बार बिछा रहा,

    पानी इतिहास पर दर्शन जमा रहा।

    इस मेज़ पर किलकती थीं नन्ही घटाएँ;

    मचलती थीं नाबालिग़ हवाएँ।

    इस पर मेहँदी का जंगल,

    अमरूदों का दरिया था।

    मेज़-मेज़ नहीं, बाल हँसी थी,

    चाँद पर टिकी नाव थी।

    नहीं, वह रोटी पर टिकी थी

    रोटियाँ आजकल चाँद हैं—

    जहाँ सिर्फ़ अपोलो जाते हैं।

    इस मेज़ पर नदियाँ लेटी रहीं

    कीट्स अँगड़ाई लेता रहा

    यह मेज़ कैंटरबरी थी

    स्ट्रेटफ़र्ड एवन थी

    यही हाँ यही थी

    एक मीटर लंबी आधा मीटर चौड़ी

    डेढ़ मीटर ऊँची

    जी हाँ यही थी, मेरी थी।

    यहाँ नौकरी के फ़ार्म भरे जा रहे हैं

    यात्रा के विवरण

    सालगिरह की दावत हो रही है।

    बिजली चले जाने पर

    मोमबत्ती मज्जा में नहाकर गा रही है,

    उसका गीत रोशनी है।

    यहाँ पत्नी की बुनाई रखी है

    बच्ची की गुड़िया सो रही है

    बेटे का बल्ला आराम कर रहा है

    मेज़ पर क्या नहीं हो रहा है

    यह मेरा ब्रह्मांड,

    घर का विश्वकोश है

    यहाँ रेडियो बज रहा है

    यहाँ भाई भाभी से लड़ रहा है।

    यहाँ मुन्ना थूक निगल रहा है।

    यहाँ खजुराहो की मूर्ति सजी है—

    मेज़ पर सिगरेट की डिब्बी पड़ी है।

    दूध का हिसाब बिजली का बिल है

    घर का वेद राशनकार्ड है

    दराज़ क्या है पूरा सूचना-केंद्र है।

    यह फूलों की सेज नहीं है,

    यह हमारी मेज़ है;

    जिस पर मेज़पोश नहीं है।

    यहाँ दस दिन नंगे हो रहे हैं,

    दुनिया हिल रही है।

    यहाँ बुद्ध के ऊपर लाल तारा झलझला रहा है।

    यहाँ मुनाफ़ा बिखर रहा है,

    मज़दूरी संगठित हो रही है।

    यहाँ साहित्य राजनीति बन रहा है,

    राजनिति फेफ़ड़ों में बदल गई।

    यहाँ दराज़ से छापामार निकल रहे हैं,

    कामचोर बंद हो रहे हैं,

    मज्जा तक मौज में रहा हूँ।

    बछड़े को माँ बना रहा हँ,

    दराज़ों को मुक्त क्षेत्र घोषित कर रहा हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : इब्बार रब्बी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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