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मेरी गली की एक सुबह

meri gali ki ek subah

शंभु यादव

शंभु यादव

मेरी गली की एक सुबह

शंभु यादव

और अधिकशंभु यादव

    ‘दिन ज्ञान की किताब-सा ही नहीं खुलता

    अंधविश्वास की सहेजी छड़ पकड़ कर भी चल पड़ता है दिन

    जिन्हें मान लेते हैं जीवन जीने के नियम

    ज़रूरी नहीं वह समृद्ध अभिलाषा उत्पत्ति हों

    एक अँधेरी गुफा चलते रहने का सिलसिला भी

    जीवन-वृक्षिका तैयार कर देता है...’

    कंप्यूटर पर कविता की ये पंक्तियाँ लिख

    सुबह में, अपने कमरे से बाहर निकल, मैं

    घर की चौखट खड़ा हूँ

    बैठक में लेटे बीमार पिता पर

    डालता हूँ दृष्टि अनमनी-सी

    बग़ल मकान की बॉलकनी में

    अख़बार पढ़ता मेरा पड़ोसी है

    हमारी आँखें मिलती हैं, भावहीन

    उसकी माँ की मृत्यु हुई है परसों

    मैं चाहकर भी नहीं गया

    उसने भी नहीं चाहा है कि

    लोग सांत्वना देने ढहे चले आएँ

    बाहर गली में, कूड़े भरी थैलियाँ

    नहा-धो चमचमा रहीं कारें

    अपने में जारी होती यह सुबह

    गेहुआँ श्यामल चमड़ी के

    सफ़ेद गोरा होने की धुन है

    बस्ता-बोझ लादे स्कूल भागते बच्चे हैं

    जवानों की मोटर साइकिल हैं फटर-फटर

    पेट फैलाए कुछ अधेड़ निकले हैं सैर को

    रोगों में रोग मधुमेह, आजकल

    मेरी गली का मुख्य रोग है

    अजीब निराली है यह सुबह

    पेड़-पौधे आस-पास होने जो, है नहीं

    चिड़िया कबूतरों की गली कहाँ गई

    कौवों की काँव-काँव को, हम

    कान देना चूक चुके हैं

    कहते हैं मौसम वसंत का है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शंभु यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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