मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं
mere pas chhipane ko kuch nahin
मेरा नाम तुम जानते हो
और यही है मेरा नाम
मैं छत्तीस के साल पैदा हुआ
और उसी मुताबिक़ है मेरी उम्र
सरकारी स्कूलों में पढ़ा
नौकरी की जहाँ-तहाँ
प्रेम शादी
तीन कमरों का घर
उड़ते-बिखरते मेज़ पर कागज़-पत्तर चिट्ठियाँ
सब कुछ जैसा
है उजागर
चौके में खटर-पटर करती
मेरी एक अदद बीवी
लड़ती-झगड़ती गाती-बजाती
मेरी दो बेटियाँ
पानी पर तैरती रोशनी या चुप्पी की
तरह आते-जाते मेरे दोस्त
यह रही मेरी नापसंदगी की सूची
शामिल इसी में मेरे दुश्मन
गोश्त, चापलूसी करने वाले केंचुए,
घटिया किताबें,
आत्मा या सार्वजनिक फ़सलों के चोर,
तस्कर-धंधेबाज़ी, ईश्वर, भूख या बेबसी के
हरामख़ोर आत्मा ने जिनको कभी नहीं धिक्कारा
मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं
इसी कमरे में यहीं किताबों के बीच यह
मेरी सोने की जगह
वह उसी चौकी उसी की दराज़ में
मेरे साथी प्रमाण-पत्र, महत्त्वपूर्ण काग़ज़ात
जिन पर इतनी धूल
हाँ छिपाने को होता है बहुत कुछ
हर व्यक्ति के पास
पर मैं तो उगल चुका कविताओं में
अपने सब भेद
कान लगाकर सुन सकता है कोई भी
देख सकता है आँखें बंद कर
छू सकता है हाथों से जो कहा मैंने बंद होंठों से भी
किया निपट एकांत अँधेरे तक में
वह रहा फुसफुसाहटों में दबा
मेरी कमीनगी का स्याह पत्थर
इस अमलतास वाली कविता में ये
ताज़े बबूल के काँटों-सी मेरी कमज़ोरियाँ
यह मेरी ताक़त का सबूत समुद्र
वह मेरा यक़ीन आग का दरवाज़ा
सचमुच मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं
सिर्फ़ बचाने को बहुत-सा अपने भीतर
दुराव-छिपाव का पहाड़ी चूहा
धीरे-धीरे कुतरता है आत्मा को
आँखों, कानों और होंठों को
फिर वहाँ बच रहती हैं फूटी कौड़ियाँ
फूटी कौड़ियों की संपदा बटोरने की ख़ातिर
जो पानी की जगह फूलदान में भरते हैं रेत
वैसा तो मैं नहीं।
- पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 179)
- रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
- प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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