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मेले में कवि

mele mein kavi

संध्या चौरसिया

संध्या चौरसिया

मेले में कवि

संध्या चौरसिया

और अधिकसंध्या चौरसिया

    मैं मेले में अकेली थी

    कानों में मेला शब्द

    अपनी पूरी ताक़त के साथ कोई धुन पीट रहा था

    मुझे बचपन का मेला याद आया

    मैंने देखा मेले में झूला नहीं हैं

    जलेबी भी नहीं है

    लेकिन मदारी खेल ज़रूर है

    यह बचपन का मेला नहीं था

    मैंने खिलौने की जगह कुछ और खोजा

    तो नई कविताओं से खेलते

    कैमरे के सामने, पाठकों के साथ

    अभिनेता से तनते कवि दिखे

    हाथ-दर-हाथ अपनी किताब बेचते

    मेले की रोशनी का पीछा करते

    बचपन में चश्मा नहीं था अब है

    मेले की चमकती रौशनी के पार

    कुछ भी खोज पाना मुश्किल होता है

    मैंने देखा एक ख़ाली दुकान पर

    हामिद के चिमटे जैसी

    मेरे कवि की किताब रखी है

    कवि ने कई सदियों पहले लिखा था

    मैं अभी पढ़ रही थी

    लेकिन जैसे कवि ने आज सुबह ही लिखा हो

    चूल्हे की आग पर, टूटे स्लेट पर

    सफ़ेद दाढ़ी पर और छोटी मूँछ पर

    मैंने पढ़ा!

    कवि ने मेरे नाम मुझको कुछ भी समर्पित नहीं किया था

    सबको किया था जो नागरिक हैं और नहीं भी

    बचपन के मेले में कैमरा नहीं होते थे

    बायस्कोप होता था,

    जिसमें हम दिल्ली देखते थे

    मैंने बायस्कोप से दिल्ली देखा

    कवि राजपथ पर बीड़ी पी रहे थे

    वहीं राजपथ पर कवि के बग़ल से

    एक पूरी भीड़ निकल गई

    उनकी कविता के बोल चिल्लाते

    किसी ने कवि को नहीं पहचाना

    अधूरे सपने की तरह

    बायस्कोप की रील ख़त्म हो गई

    मैंने देखा तो

    मेरी मेज़ पर कवि की तस्वीर नहीं

    किताब सरीखा एक चिमटा रखा था

    स्रोत :
    • रचनाकार : संध्या चौरसिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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