मज़दूरों का लौटना
mazduron ka lautna
लौट रहे हैं मज़दूर
अपने-अपने घरों की ओर
कटी-फटी एड़ियों
मैले-चीकट कपड़ोंवाले
साँसों में लिए खनिज पदार्थों की डस्ट
कपड़ों से छोड़ते विभिन्न रसायनों की गंध
लौट रहे हैं अपने-अपने घरों की ओर
अभी बाक़ी दीपावली को पूरे तीन दिवस
दिखाई दे रहे इटारसी रेलवे स्टेशन के अंतिम प्लेटफ़ॉर्म पर
उनके झुंड के झुंड
देखते ही उनकी शक्ल
एक अजीब-सी ग्लानि की लपटों में घिर गई मेरी आत्मा
क्या यही हैं वे मज़दूर
टिके रहते जिनके पसीने की एक ठोस बूँद पर वर्षों
बड़ी-बड़ी इमारतें, पुल विराट
चाहे जितनी भी तकलीफ़, कीचड़ और दुर्गंध से सनी हों उनकी बस्तियाँ
ख़ुशियों के नए-नए बहानों तथा रूपकों को
गढ़ देने में नहीं जिनका कोई सानी
बचा है जिनकी वजह से
बुद्धिजीवियों के विचारों के पीकदान में तब्दील होने से देश
क्या हो गया इन्हें
वीरान भुतहे डाकबंगले-सी हो गईं उनकी आँखें
और गन्ने की रसविहीन खोई जैसे चेहरा
ऐसा तो नहीं था पहले
पहले भी प्रकृति या महामारी बिगड़ैल साँड़-सा
उछालती रही है उन्हें अपने सींगों पर
जाते ही थे वे देश के दूरस्थ भागों में करने मज़दूरी
लौटते तीज-त्यौहारों पर जब कभी
रास्ते भर उड़ा करता हँसी-ठट्ठा का गुलाल
तकलीफ़देह नहीं होने देते लोकगीत उनकी यात्राएँ
और स्मृतियाँ,
सद्य:प्रसूता गाय के थनों की तरह इतनी डबाडब
कि तिनका भी टकरा जाए उनसे
फूट निकले बतकही की छिर्री
कुछ अलग पर इस समय दृश्य
गाढ़ी हो रही धीरे-धीरे रात की स्याही
सब लेटे हैं पोटली को बनाए तकिया
गुज़र रही अलग-अलग दु:स्वप्नों से उनकी नींद
बार-बार फूल-पिचक रहे आतंक से किसी के नथुने
उतरा हो मानो वर्षों पुराने कुएँ की करने सफ़ाई
और टकरा गया नाक से ज़हरीली गैसों का भभका
किसी को लग रहा
लदा है पीठ पर यात्रियों के सामानों का बोझ
जूझ रही भीषण बर्फ़बारी के दौरान एक बीहड़ दर्रे में उसकी देह
दहशत के कारण आँखों के कोटरों से बाहर फट पड़ने को आतुर किसी की आँखों की पुतलियाँ
ताज़ा हो उठा उसकी स्मृति में वह दृश्य
जब घास काटते-काटते आ गया था
उसकी हथेलियों में फुफकारते नाग का जिस्म
एक लेटा है झुंड से अलग
गूँज रहा उसके कानों में बनैले नारे की तरह कोई शोर
‘नहीं है यह यहाँ का बाशिंदा करो इसे हमारी धरती से बाहर’
मुँह से निकल रही उसके घिग्गीनुमा घरघराहट
यह एक नस्लवादी भाषा है
जो चाक़ू की तरह रेत रही उसका गला
ख़त्म होगा ही अंततः यह सफर
लौटेंगे सब अपने-अपने घरों की ओर
देखेगा उनका गाँव उन्हें
भारी भू-स्खलन के बाद नाप रहा हो जैसे कोई पहाड़
फिर से क़द अपना।
- रचनाकार : मोहन कुमार डहेरिया
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.