एक
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है,
सूर्य-चंद्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह फूल तारे मंडन हैं,
बंदी जन खग-वृंद शेष फन सिंहासन हैं!
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इसे वेष की,
है मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
दो
मृतक-समान अशक्त विविश आँखों को मीचे;
गिरता हुआ विलोक गर्भ से हम को नीचे।
कर के जिसने कृपा हमें अवलंब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था।
जो जननी का भी सर्वदा थी पालन करती रही,
तू क्यों न हमारी पूज्य हो? मातृभूमि, मातामही!
तीन
जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे’ कहलाए।
हम खेले कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि! तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
चार
पालन-पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष:स्थल पर हमें कर रही धारण तू ही।
अभ्रंकष प्रसाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो! तुझी से तुझ पर सारे।
हे मातृभूमि! जब हम कभी शरण न तेरी पाएँगे,
बस तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जाएँगे॥
पाँच
हमें जीवनधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है।
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम-भाव से सदा हमारा।
हे मातृभूमि! उपजे न जो तुझसे कृषि-अंकुर कभी,
तो तड़प-तड़प कर जल मरें जठरानल में हम सभी॥
छह
पाकर तुझको सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस तेरे ही ससुर-सार से सनी हुई है।
हा! अंत-समय तू ही इसे अचल देख अपनाएगी,
हे मातृभूमि! यह अंत में तुझमें ही मिल जाएगी॥
सात
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता।
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता।
उन सबमें तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है
हे मातृभूमि! तेरे सदृश किसका महा महत्व है?
आठ
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल-मंद-सुगंध पवन हर लेता श्रम है।
षट् ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भभुत क्रम है,
हरियाली का फ़र्श नहीं मख़मल से कम है।
शुचि सुधा सींचता रात में तुझ पर चंद्र-प्रकाश है,
हे मातृभूमि! दिन में तरणि करता तम का नाश है॥
नौ
सुरभित, सुंदर, सुखद सुमन तुझ पर लिखते हैं,
भाँति-भाँति के सरस सुधोपम फल मिलते हैं।
ओषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली,
खानें शोभित कहीं धातु-वर रत्नोंवाली।
जो आवश्यक होते हमें मिलत सभी पदार्थ हैं,
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
दस
दीख रही है कहीं दूर तक शैल-श्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी।
नदियाँ पैर पखार रही हैं वन कर चेरी,
पुष्पों से तरुराजि कर रही पूजा तेरी।
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चंदन चारु चढ़ा रही,
हे मातृभूमि! किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?
ग्यारह
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
हे शरणदायिनी देवि! तू करती सब का त्राण है,
हे मातृभूमि! संतान हम, तू जननी तू प्राण है॥
बारह
आते ही उपकार याद हे माता! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा।
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन तो होता तुझे उठाकर शीश चढ़ावे।
वह शक्ति कहाँ, हा! क्या करें, क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि! केवल तुझे शीश झुका सकते अहो!
तेरह
कारण-वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब मुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं।
पाखंडी ही धूल चढ़ा कर तनु में तेरी,
कहलाते हैं साधु नहीं लगती है देरी।
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि! वह शक्ति है।
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है॥
चौदह
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय! देखता वह सपना है।
तुझको सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं।
हे मातृभूमि! तेरे निकट सबका सम संबंध है,
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अंध है॥
पंद्रह
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूल में जब पूरे सन जाएँगे,
हो कर भव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जाएँगे॥
- पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली -1 (पृष्ठ 191)
- संपादक : कृष्णदत्त पालीवाल
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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