पहाड़ से उतरती उनकी थकान
रात का सन्नाटा बन रही है
फिर भी बहुत-से काम बाक़ी हैं
उनके हिस्से की नींद में
वे जाग रही हैं
दुनिया पर उनके जागने का क़र्ज़ है
खेतों में फ़सलों को
और चूल्हों में आग को राख से ढाँपकर
वे सुला चुकी हैं
दूर पाल लेती नदी की कराह
उनकी साँसों से फूट रही है
दूसरों के भयाक्रांत सपनों की आवाज़ें
उनके रतजगे को कॉफ़ी है
निस्तब्धता तोड़ती चिड़िया की चीख़
कुत्ते-बिल्ली का रोना
रसोई में चूहों के उत्पात
पड़ोस में बच्चे का रोना
काफ़ी है बेचैन करने के लिए
नींद के महीन परदे के बाहर
उनकी चिंताएँ जागती रहती हैं
ज़रा-सी थरथराहट और सिहरन से
उनकी आत्मा की घंटियाँ बज उठती हैं
अपनी गिरस्ती, अपने खेत-खलिहान
अपनी नौकरी और मजूरी से
पस्त पड़े हैं उनके शरीर
लेकिन, उनींदी आँखों से
लोरियाँ गाते-गाते उन्हें भी नींद आ रही है
इनकी नींद के लिए
संसार में नहीं रची गई लोरियाँ
ठीक इस वक़्त
घर-आँगन को बुहार कर
झाड़ू दुबकी पड़ी है कोने में
निराई, कटाई के बाद
खुरपी और हँसिए खुँसे हैं छप्पर में
गैंती, फावड़े, छेनी-हथौड़े, तसले-सूपड़े
ओखली और मूसल सब पड़े हैं निढाल
चौक, रंगोली, गोबर, गेरू और मिट्टी
अपनी उजास पवित्रता में शांत हैं
चक्की, मथानी, करघे, रेंहट और कुएँ की घिरनी सब
अपनी चकराती दिनचर्या से मुक्त और स्तब्ध हैं
पशुओं की परिचर्या, भूसा-चारा, दाना-पानी, गोबर, कंडे
उनके वात्सल्य से बोझिल हैं
रसोई में तृप्ति और पुष्टि की अद्भुत रचनाएँ
चूल्हा, चौका, बासन की उजली पवित्रता
अपनी मौजूदगी में अकेली हो चुकी है
कपड़े-लत्तों में बसती आई धूप
कहीं सोने चली गई है
गगरी और मटकी कुएँ के स्तब्ध तल की तरह चुप हैं
रस्सी, पगडंडी की तरह सो गई है धूल में
इस वक़्त सबसे शीतल और मद्धिम हवा को
सबसे ख़ुशबूदार फूलों से होकर
उनके चेहरों पर बहना चाहिए
बलाओं और दु:स्वप्नों को
उनके श्रम के ताप से जल जाना चाहिए
धरती से फूटना चाहिए सबसे सम्मोहक संगीत
सब बच्चों को अपनी नींद के हिस्से से
थोड़ी-थोड़ी नींद इनके लिए छोड़ देनी चाहिए
थोड़े-थोड़े सपने तितलियाँ, पतंगों के
थोड़े-थोड़े सपने धूप और इंद्रधनुष के रंग
छोड़ देना चाहिए
इनकी नींद की रखवाली में
पहाड़ों को खड़े हो जाना चाहिए बाँधकर हाथ
इनकी धमनियों और शिराओं से
ताप बहा ले जाने
नदियों को बहना चाहिए
बादलों को पूरी आर्द्रता के साथ
इनकी पलकों और माथों को छूना चाहिए
बच्चों की नींद में उतरती लोरियों को
सपनों के असंख्य परागकण लेकर
लौट आना चाहिए दबे पाँव।
- पुस्तक : एक अनाम कवि की कविताएँ (पृष्ठ 144)
- संपादक : दूधनाथ सिंह
- रचनाकार : अनाम कवि
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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