ढोलकी की थाप और गीतों की धुन पर
झूमती-गाती चली जा रही थीं औरतें
इनार की ओर
कि बस गंगा माँ पैठ जाएँ इनार में
जैसे समा गई थीं जटा के भीतर
धूम-धाम से हो रहा था विवाह
कि भूलकर भी नहीं पीना चाहिए
कुँआर इनार का पानी।
विवाह से पहले
नए लकड़ी के बने कलभुत 1को
विधिवत लगाई गई हल्दी
पहनाया गया चकचक कोरा धोती,
और पल भर के लिए भी नहीं रुके गीत
गीत! विवाह के गीत
मटकोड़वा के गीत
चउकापुराई के गीत
गंगा माई के गीत।
चली जा रही थी बरात
पर एक भी मर्द नहीं था बराती
जल-जीवन बचाने की जंग का
पूरा मोरचा टिका था
सिर्फ़ जननी के कंधों पर
कि पाताल फोड़, बस चली आएँ भागीरथी
जैसे उतर आती हैं कोख में।
लकड़ी का 'दुल्हा' गोदी उठाए
आगे-आगे चली जा रही थीं श्यामल बुआ
मन ही मन कुछ बुदबुदाती
मानो जोड़ रही हों
दुनिया की सभी जलधाराओं का
आपस में नाभि-नाल।
चिर पुरातन चिर नवीन प्रकृति माँ से
माँगा जा रहा था वरदान
इनार की जनन-शक्ति का।
आदिम गीतों के अटूट स्वरों में
पूरे मन से हो रही थी प्रार्थना
कि कभी न चूके इनार का स्रोत
कभी न सूखें हमारे होंठ
हमेशा गीली रहे गौरैया की चोंच
माँ हरदम रहे मौजूद
आँखों की कोर से ईख की पोर तक में।
दोनो हाथ जोड़े माताएँ टेर रहीं थीं गंगा माँ को
उनकी गीतों की गूँज टकरा रही थी
तमाम ग्रह-नक्षत्रों पर एक बूँद की तलाश में
जीवन खपा देने वाले वैज्ञानिकों की प्यास से
गीतों की गूँज दम देती थी
सहारा के रेगिस्तान में ओस चाटते बच्चों को।
गूँज भरोसा दे रही थी
तीसरे विश्वयुद्ध से सहमे नागरिकों को।
गीत पैठता जा रहा था
दुनिया भर की गगरियों और मटकों में
जो टिके थे
औरतों के माथे और कमर पर।
गीतों के सामने टिकने की
भरपूर कोशिश कर रही थी प्यास
पर अपनी बेटियों के दर्द में बँधी
गंगा माँ
हमारे तमाम गुनाहों को माफ़ करती
धीरे-धीरे समाती जा रही थीं
इनार में।
- रचनाकार : प्रमोद कुमार तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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