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सारे ही दीप बुझ गए कैसे?

sare hi deep bujh gaye kaise?

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

आ. रा. देशपांडे अनिल

आ. रा. देशपांडे अनिल

सारे ही दीप बुझ गए कैसे?

आ. रा. देशपांडे अनिल

और अधिकआ. रा. देशपांडे अनिल

    क्योंकर क्षीण हो गए दीप सभी?

    ज्योति बुझती-बुझती-सी लगी

    कहीं नहीं हैं ऐसी ज्वाला

    कि झुलस कर प्राण दे सके शलभ?

    सभी स्वर कैसे जड़ हो गए?

    अपनी गर्जना से जगा सके चट्टानें

    कहाँ है वह प्रबल शक्ति?

    नहीं सुन पड़ता

    कहीं ऐसा आवाहन

    कि ‘आओ रे आओ

    मर मिटो इस आन पर।’

    भावों में जोश नहीं

    यौवन में आवेश नहीं,

    संघर्ष नहीं, द्वंद्व नहीं,

    जिसके पीछे बेहिचक चल सकें

    ऐसा पराक्रमी नेता नहीं

    जहाँ दिया जा सके बलिदान

    ऐसी समर भूमि नहीं,

    प्रेत भी जी उठें जिसे सुनकर

    ऐसे मंत्रों का उद्घोष नहीं,

    आशाएँ टूट गईं

    विद्रोह हुए असफल

    सभी जगह तिकड़मबाज़ी

    और सभी हो गए निष्प्राण-से,

    क्यों हो गए निर्जीव से?

    सभी मोर्चों पर ऐसा यह सन्नाटा?

    ऊपर-नीचे ख़ामोशी

    इधर-उधर ख़ामोशी

    जन-मन में शून्यता

    अंतर में रिक्तता

    पसलियों में भी हरकत नहीं

    प्रेम में भी चमक नहीं,

    सबका ध्यान आकर्षित कर ले,

    आँखों में ऐसी आभा नहीं

    जीवन की दिशा नहीं

    तरुणाई की शक्ति नहीं

    यौवन का उद्वेग नहीं

    साहित्य में प्राण-शक्ति नहीं

    संगीत में संकेत नहीं

    कला में बोध नहीं

    सरलता की क़ीमत नहीं,

    सहज आचरण नहीं।

    हर एक है असहाय

    असफलता से पीड़ित;

    और घर-घर में भ्रष्टाचार

    मैं भी चुप, तू भी चुप

    और दुनियादारी के सभी सौदे

    होते हैं गुपचुप।

    हर एक

    अपनी जगह पर चिपका है

    या फिर दूसरे की जगह अड़ाए बैठा है,

    वैसे है दब्बू पर ऊपर से जमाता है रौब।

    योजना का प्रचार है

    विदेशी मुद्रा का बाज़ार है

    विशेषज्ञों की कमी नहीं,

    पर स्व की अनुभूति नहीं,

    भोगों के पीछे छोड़ दी तपस्या

    दाता ही अब बन गए भिखारी,

    नैतिकता चढ़ती नीलाम पर

    सौंदर्य बिकता झनकार पर

    काग़ज़ की क़ीमत पर,

    सभी आकृतियाँ हो गईं विकृत

    पर मन में नहीं खटकता

    अभाव कुछ भी।

    सभी दीप क्षीण हो गए कैसे?

    सारे ही दीप बुझ गए कैसे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 8)
    • रचनाकार : आ. रा. देशपांडे अनिल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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