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मंथराएँ

manthrayen

सदानंद शाही

सदानंद शाही

मंथराएँ

सदानंद शाही

और अधिकसदानंद शाही

    जब जब राम का राजतिलक होता है

    मंथराओं के उदर में उठता है ज़ोर का शूल

    मंथराएँ नाचने लगती हैं

    नंगा नाच

    नोचने लगती हैं सिर के बाल

    करने लगती हैं आर्त्तनाद

    मंथरता को छोड़

    तेज़ी से दौड़ पड़ती हैं

    जुट जाती हैं झुंड की झुंड

    यहाँ वहाँ

    करने लगती हैं हुँआ-हुँआ

    शुरू हो जाता है रुदाली का सामूहिक विलाप

    मंथराएँ ज़हर घोल देती हैं पूरे वातावरण में

    आदमी आदमी नहीं रह जाता

    वह पागल कुत्ते में बदल जाता है

    अपनी पूँछ उठाकर

    दूसरे के नंगा होने की घोषणा करता घूमता है

    मंथराएँ

    धधका लेती हैं

    अपने कलेजे में

    ईर्ष्या द्वेष की आग

    कलेजा ठंडा करने के लिए बलि माँगती हैं

    मंथराएँ

    दशरथ हों या सीता

    स्वयं राम ही क्यों हों

    उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता

    और जब राम वन को चले जाते हैं

    मुस्कुराते हुए निकलती हैं मंथराएँ

    सहानुभूति की रामनामी ओढ़े

    झूठ और फ़रेब की माला पहने

    कपट का तिलक लगाए

    राम वन गमन की कथा बाँचते

    डोलने लगती हैं मंथराएँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सदानंद शाही
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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