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आम के बाग़

aam ke bagh

आलोकधन्वा

आलोकधन्वा

आम के बाग़

आलोकधन्वा

और अधिकआलोकधन्वा

    आम के फले हुए

    पेड़ों के बाग़ में

    कब जाऊँगा?

    मुझे पता है कि

    अवध, दीघा और मालदह में

    घने बाग़ हैं आम के

    लेकिन अब कितने और

    कहाँ-कहाँ

    अक़्सर तो उनके उजड़ने की

    ख़बरें आती रहती हैं।

    बचपने की रेल-यात्रा में

    जगह-जगह दिखाई देते थे

    आम के बाग़

    बीसवीं सदी में

    भागलपुर से नाथनगर के

    बीच रेल उन दिनों जाती थी

    आम के बाग़ों के बीच

    दिन में गुज़रो

    तब भी

    रेल के डब्बे भर जाते

    उनके अँधेरी हरियाली

    और ख़ुशबू से

    हरा और दूधिया मालदह

    दिशहरी, सफेदा

    बाग़पत का रटौल

    डंटी के पास लाली वाले

    कपूर की गंध के बीजू आम

    गूदेदार आम अलग

    खाने के लिए

    और रस से भरे चूसने के लिए

    अलग

    ठंडे पानी में भिगोकर

    आम खाने और चूसने के

    स्वाद से भरे हैं

    मेरे भी मन प्राण

    हरी धरती से अभिन्न होने में

    हज़ार-हज़ार चीज़ें

    हाथ से तोड़कर खाने की सीधे

    और आग पर पका कर भी

    यह जो धरती है

    मिट्टी की

    जिसके ज़रा नीचे नमी

    शुरू होने लगती है खोदते ही!

    यह जो धरती

    मेढक और झींगुर

    के घर जिसके भीतर

    मेढक और झींगुर की

    आवाज़ों से रात में गूँजने वाली

    यह जो धारण किए हुए है

    सुदूर जन्म से ही मुझे

    हम ने भी इसे सँवारा है!

    यह भी उतनी ही असुरक्षित

    जितना हम मनुष्य इन दिनों

    आम जैसे रसीले फल के लिए

    भाषा कम पड़ रही है

    मेरे पास

    भारतवासी होने का सौभाग्य

    तो आम से भी बनता है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : आलोकधन्वा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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