पर्वत पर बैठकर लोग जब
मैदान को बौना मान लेते हैं
चींटी और पहाड़ के रिश्ते को
हाथी और चींटी के रिश्ते को
कालांतर में चरितार्थ जान लेते हैं
उपचार को हम आते तो हैं
सिर्फ़ हाथ मिलते होते हैं
मंगलेश की तरह नहीं जो
हाथ मल-मल कर कुछ पैदा करता होता है
आँखों को दागने के लिए नहीं
संवेदना के कुंडली-जागरण के लिए
वह वैसा कुछ करता होता है
छोटा क़द होकर भी लंबुओं से ज़्यादा लंबी लिख लेता है
शमशेर की तरह
कहना प्रसंगेतर हो जाएगा जो
निकलता क्यों नहीं रीति-रंध्रों से
अपवादों से छोड़कर
पाँव पर उगे पीपल पर बैठकर भी लोग जब
पहाड़ को बड़ा मान लेते हैं
हम तो मैदान के लोग हैं
सूर्यग्रहण के फलित योगायोग हैं
फिर कवच लगाकर हम मुक़ाबला करेंगे
सर क़लम हो जाएँ चाहे जिसका हो
मैदान से बढ़ते हुए लोग
यह संकल्प लेते हैं
लड़ेंगे, हम लड़ेंगे साथी
मर कर स्वर्ग लेंगे
उत्तराखंड जिसे आप कहते हो
- पुस्तक : दंड की अग्नि (पृष्ठ 47)
- रचनाकार : शिवमंगल सिद्धांतकर
- प्रकाशन : अधिकरण प्रकाशन
- संस्करण : 2019
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