फूल डरकर खिलते हैं क्यारियों में
अँधेरा फैल जाता है अचानक धूमकेतु की तरह
रोशनी की आँखों पर
पंछी कातर होकर उड़ता है बे-आवाज़
नीचे के आसमानों में,
समय सापेक्ष है कौन नहीं जानता
पर दीमक खाई भुरभुरी मिट्टी का ढेर
मूँगा तो नहीं होता?
जिह्वा-बिद्ध हर व्यक्ति गूँगा नहीं होता।
गंगा का पानी हस्तिनापुर के मुहाने पर ही रोक लिया गया था
इंद्रप्रस्थ झमाझम रोशनी में आज भी चमचमा रहा है
सदियाँ समन्वय और संतुलन की ढप बजा रही हैं
काल त्राहिमाम का अंधकार गीत गा रहा है,
पानी जम जाए तो वक़्त भी सड़ने लगता है
धैर्य से पत्थर में राग जागता होगा शायद
पर रस्सी से पत्थर के कटने का इंतज़ार
कोई कब तक करे?
उड़ान पर निकले परिंदे को मालूम होना चाहिए
कि आसमान में सुस्ताने की जगह नहीं होती
कि जंगल में बीज समेटते हाथों के लिए
सफ़ेद रस्सियों पर किसी रंगीन शय का सपना वर्जित है
कि जुए में जीत रहा लगने वाला व्यक्ति
दरअसल हारने की ही तैयारी कर रहा होता है,
दीवार पर टँगे फ़ोटो-फ़्रेम के साथ
कोई कब तक विक्रम-बेताल खेलेगा?
पेड़ में आग लगने की ख़बर कोई शुभ संकेत नहीं है
प्लास्टिक के फूल मुरझाते नहीं पर मन में वितृष्णा भरते हैं,
मछलियाँ चूहों की शरण में जा रही हैं
मिट्टी कीचड़ में तब्दील हो रही है
बर्फ़ में इंसान नहीं देह ज़िंदा रहती है
तो जूता हाथ में लेकर
रेगिस्तान में नंगे पाँव चलने की ज़िद
नक़ली दुस्साहस के अलावा और क्या है?
तिलचट्टे बिना सिर के साँस ले रहे हैं
जनता का शग़ल चाँदमारी बना हुआ है
अजगर के आकर्षण और सुकरात की छोटी नाक पर बहस जारी है,
तो बंदरों की ताक़त झुँड के अलावा और क्या है?
मौन हमेशा मुखर से बेहतर नहीं होता
हर बार खेलना और हार जाना
बड़प्पन नहीं बेवक़ूफ़ी समझी जाती है।
आत्मा का चिराग़ आदमी कितना घिसे
देह को आग से बने जिन्न में कब तक बदले
मिथक के पर्दे में घाव की उधड़ी सिलाई कहाँ तक ढाँपे
नदी में मुँह छुपाकर बैठे सूरज को उसका धर्म कोई कैसे समझाए
आकाश की ऊँचाई का बखान कर
छाया और छवियों का भय दिखाकर
चाँद पर चढ़ाई को उन्मत्त अश्वमेध के घोड़े की लगाम कौन पकड़े?
अनागत के भग्न-निर्वात में अजस्र रुदन का अमंगल गूँजता है
मनुष्य होने पर हमें अभी और शर्मिंदा रहना है।
- रचनाकार : अनादि सूफ़ी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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