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मैं नहीं जानता

क्योंकि नहीं देखा है कभी—

पर, जो भी

जहाँ भी लीपता होता है

गोबर के घर-आँगन,

जो भी

जहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता है

आटे-कुंकुम से अल्पना,

जो भी

जहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता है

मेथी की भाजी,

जो भी

जहाँ भी चिंता भरी आँखें लिए निहारता होता है।

दूर तक का पथ—

वही,

हाँ, वही है माँ!!

स्रोत :
  • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 138)
  • संपादक : प्रभाकर श्रोत्रिय
  • रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2015

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