याद नहीं कि माँ ने
कभी अबोला किया हो मुझसे
मुझसे भी यह न हुआ कभी
बस एक अबोला माँ ने किया
अपने जीवन की अंतिम घड़ी में
और फ़ोन पर बतियाने से
साफ़ मना कर दिया था उन्होंने
गाँव पर थी माँ जब
जीवन की अंतिम साँसें गिनती हुईं
गया था पटना से बाल बच्चों समेत मिलने गाँव
हाँ मिलने मात्र
जबकि मुझ संतान से
सेवा शुश्रूषा पाने के
नितांत ज़रूरी दिन थे वे
लंबे समय से बिस्तर पकड़े माँ के
माँ से विदा लिया था
तो यह कहकर कि
बस लौटता हूँ
तुम्हारी दुलारी पोती को
दिल्ली छोड़कर दिन दो बाद ही
माँ ने मना नहीं किया
उस पोती के जीवन का सवाल था
जिसमें दादी के प्राण बसते थे
और पोती के दादी में
पर यह प्रतिदान पाने का अवसर न था!
माँ ने तो बस, देना ही जाना था
पोती को दी भरे गले सलाह
'मेरा क्या, दिन दो दिन की मेहमान हूँ
दादी का मरा मुँह भी तुम
भरसक ही देख पाओगी
बेटी, रीत यही है दुनिया की
सुख में ही नहीं घने दुःख और विपत्तियों में भी
मनुष्य का आना जाना कहाँ रुकता!
जा रही हो और कलेजा फट रहा है मेरा'
देखा, आँसुओं की मोती-धार मोटी
माँ के दादी-गाल पर बह रही थी
'मन लगा कर पढ़ना बउआ,
गाँव की पहली बेटी हो
जो इतनी दूर पढ़ने निकली हो
बेटी जात हो, जुआन, काँच-कुंवार हो तब भी
दिल्ली भेजा है पढ़ने तुम्हारे बाप ने
समूचे घर समाज से लड़ झगड़ कर
मेरा ही बस चलता तो क्या जाने देती!
कुछ भी ऐसा वैसा न करना
उम्मीदों पर बेटे के मेरे, सर-समाज के खरा उतरना'
जिस दिन बेटी दिल्ली जा रही थी
फ़ोन आया घर से भैया का
माँ से बात कराना चाहा
पर माँ ने बात करने से मना किया
उन्हें मेरा उनके पास आने से
कुछ भी कम मंज़ूर नहीं था
मैंने एकतरफ़ा ही माँ से संवाद किया था
कहा था माँ से
बस, आज ट्रेन पर चढ़ा तेरी लाडली को
कल सुबह घर के लिए बस पकड़ता हूँ
बेटी को सी-ऑफ़ करके ज्यों ही
पटना जंक्शन से डेरा लौटता हूँ
तो घर से फ़ोन पर भैया होते हैं
भरे गले से कहते हैं—चल दी माँ
मैं माँ से किए अपने वादे
निभाने चल देता हूँ घर
घर जो पिता के मेरी अबोध-लरिकाई में ही
गुज़र जाने से आधा अधूरा घर था
अब माँ के न रहने से
गाँव का अदना हिस्सा भर रहा गया था
पहली बार हुआ था कि घर पहुँच कर
घर के दरवाज़े पर लगी जमघट में मौजूद
किसी बड़े बुजुर्ग को न किया प्रणाम-पाती
न ही माँ के छुए पाँव और
न ही माँ थी सामने हुलस कर अपने जिगर के टुकड़े को
अधीर आतुर पाने को
माँ की छाती से लगकर
लाख रोता बिलखता हूँ
माँ का हृदय नहीं पसीजता
पहली और अंतिम बार
इतना काठ-करेजा हो उठती हैं माँ
माँ कुछ नहीं बोलती
माँ का यह अबोला
ज़िंदगी भर का साथ हो जाता है।
- रचनाकार : मुसाफ़िर बैठा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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