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माँ जब खाना परोसती थी

man jab khana parosti thi

चंद्रकांत देवताले

चंद्रकांत देवताले

माँ जब खाना परोसती थी

चंद्रकांत देवताले

वे दिन बहुत दूर हो गए हैं

जब माँ के बिना परसे

पेट भरता ही नहीं था

वे दिन अथाह कुएँ में छूट कर गिरी

पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह

अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे

फिर वो दिन आए

जब माँ की मौजूदगी में

कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था

जबकि वह अपने सबस छोटे और बेकार बेटे के लिए

घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी

उसने कभी नहीं पूछा

कि मैं दिन भर कहाँ भटकता रहता था

और अपने पान-तंबाकू के पैसे

कहाँ से जुटाता था

अक्सर परोसते वक़्त वह

अधिक सदय होकर

मुझसे बार-बार पूछती होती

और थाली में झुकी गर्दन के साथ

मैं रोटी के टुकड़े चबाने की

अपनी ही आवाज़ सुनता रहता।

वह मेरी भूख और प्यास को

रत्ती-रत्ती पहचानती थी

और मेरे अक्सर अधपेट खाए उठने पर

बाद में जूठे बर्तन अबेरते

चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी

बरामदे में छिपाकर

मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे

और आख़िर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना

सबसे ख़ौफ़नाक सिद्ध होता

और तब मैं दरवाज़ा खोल

देर रात तक के लिए सड़क के

एकांत और अँधेरे को समर्पित हो जाता

अब ये दिन भी भी उसी कुएँ में

लोहे की वज़नी बाल्टी की तरह पड़े होंगे

अपनी बीवी-बच्चों के साथ खाते हुए

अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी

दोनों ही ग़ायब हो गई है

अब सब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी से खाते हैं

और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिंत रहते हैं

फिर भी कभी-कभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर

मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती टोहती

उसकी दृष्टि और आवाज़ तैरने लगती है

और फिर मैं पानी की मदद से

खाना गिटक कर कुछ देर के लिए

उसी कुएँ में डूबी

उन्हीं बाल्टियों को ढूँढ़ता रहता हूँ।

स्रोत :
  • पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 43)
  • रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
  • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
  • संस्करण : 2008

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