रुचिर शैल
जिस पर छितराए हैं मेघ-अलक अभ्र-लक्ष्मी ने,
खड़ा है चुपचाप गाढ़ चुंबन-लीन,
प्यारे से झरने का मनहर कूल,
बिखर जाते हैं मोती जिस पर उसकी हँसी के
छोटा-सा खेत, जहाँ लहरा रही है हरे धान की बालियाँ,
ईषद् आरक्त सुंदर उपवन
मनोरम संध्या की द्युति से प्रोज्ज्वल
चंचल किसलय-राजि द्वारा निर्मित।
मलय पवन
जो गुदगुदा जाती है मुस्काते-झूमते सुमन को,
मोहन कल-गान मस्त कोकिल का
जो करता है जग को सुख-मूर्छा लीन।
एक शांत कुटिया
हरित गिरि-तट में बहते झरने के किनारे विश्राम-स्थली,
अल्प-काल आराम करने के लिए
बिछा दिया हो हरी घास के कालीन पर जिसे
उपवन लक्ष्मी ने।
और, गोद में प्रिया मेरी चिर-संचित पुण्य प्रतीक
मधुर तारुण्यमयी
जिसके रागपूर्ण नेत्रों से झरता हो रस—
यही बहुत है मेरे लिए
आ गया मेरी मुट्ठी में सब कुछ,
नगण्य है फिर सुर-लोक भी।
- पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 167)
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1966
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