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धी आ बेख

dhi aa bekh

प्रणव नार्मदेय

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और अधिकप्रणव नार्मदेय

    'हे सखि!

    बिधना तोहर हमर

    एक्कहि रंग'

    रहय बतियाइत एकटा धिया

    एकगोट बेखसँ

    'मारल जाइ छी

    गर्भक भीतरे हम

    गर्भक बाहर तोहूँ'

    करैत आत्मसात ओहि धीक पीड़केँ

    बाजल गाछ

    'हे हइ बहिना

    मिलियो क' हम दुहूगोटे

    की सकब बुझा

    अहि मनुक्खक जातिक

    जे मारब कुरहाड़

    अपन पएर पर अपनहि

    काज त' नहि बुझनुकक'

    छल सुनि रहल

    गप्प दुहूक

    कात बैसल पिता

    छल गुनि रहल संवाद सभ मौन साकांक्ष

    जैं कि छल किसान सेहो

    बुझि रहल छल मर्म दुहूक

    बुझल छलैक ओकरा जे

    धिया/धरतीक थिक उर्वरा

    आओर बेख...नूतनता

    मुदा से कि

    बुझा सकल ककरहु आइ धरि

    जे बिनु बेटिए

    की जनमि सकत कोनो माए

    कि माए बिनु

    सिरजि सकत सृष्टि सिरजनहारो

    कहाँ सकल बुझा ककरो

    जे जनमिओक'

    की जियल जा सकत जिनगी बिनु बेखे

    तखन त'

    जेना जा रहल घटल

    गिनती धियाक रकबा जंगलक

    तहिना

    जा रहल बढ़ैत

    बेचैनी बेटीक बापक

    आँकड़ा किसानक आत्महत्याक।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विसर्ग होइत स्वर (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : प्रणव नार्मदेय
    • प्रकाशन : नवारम्भ, पटना
    • संस्करण : 2017

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