ओ मेरे समकालीन युवा!
हाँ, ऐसे ही ठिठियाते रहो
कोई भी समस्या हो
चाहे फूल का मुरझाना
या विवेक का तुल जाना
सबसे बड़ा समाधान है—मुँह फाड़कर दाँत निपोरना...
आग की लपटों में घिरा तुलसी का बिरवा
या किसी के बेडरूम में क़ैद प्रकाश के प्राण
तुम्हें आवाज़ देते हैं तो देते रहें...
हाँ, तुम ऐसे ही चाय की चुस्की और
पान की मुस्की के संग खोए रहो
कहने को तो बाद यह भी कह सकते हो मित्र
कि भारतीय डाक व्यवस्था की मानिंद
भाव संप्रेषण भी कब्जियत के कब्जे में है...
वाकई, यह ठीक है
कि पेड़ जिसकी फुनगी पर बैठे हों बगुले
घर जिसके भीतर जा पैठे हों चूहे
उसे कौन बचा सकता है, और यह भी ठीक है।
कि उसी को न पहननी होगी ‘उत्तरीय’
जिसका मरेगा बाप
वह मोल क्यों ले निचोड़ने का झगड़ा
जिसका भीगेगा ही न कपड़ा...मगर
ओ मेरे बुद्धिजीवी (परजीवी) बंधु!
वैशाख में जब पछिया की जवानी देती है संग
तो भूल जाती है आग भी, फ़र्क़ करना घर और घर में
बमक उठती है जब जवानी नदी की
तो भूल जाता है पानी भी, फ़र्क़ करना खेत और खेत में...
ख़ैर, जब एक न एक दिन मरना है निश्चित
तो हुआ क्यों जाए चिंतित
चाहे कोई दंगा में मरे या गंगा में मरे
कोई पुलिसिया डंडा से मर जाए या मौसम ठंडा से मर जाए
कोई बोली से मरे या गोली से मरे
कोई प्यास-ओ-भूख से मर जाए या भूँक-भूँककर मर जाए
ये न चिंता के विषय हैं ना ही चिंतन के
सोच तो हमारी हों इस पर केंद्रित
कि एशियाड में कितने मिले भारत को मैडल
चाहे टूट क्यों न गया हो देश की अर्थव्यवस्था का पैडल...
ओ मेरे सुविधाभोगी मित्र!
तुम्हारे इस यथास्थितिवादी समाज के लिए
औरत भी तो बस्स सुविधा का एक सामान है
कचर-कचर कर थूक देने को
मगही कि देशी कि कलकतिया कि बनारसी पान है
और उसका क्षेत्र सीमित है रसोई से बिछावन तक
जहाँ वह दुलार से जाए कि बलात्कार से
कैंचा से पाए कि पैचा से जाए
सधवा होकर जाए कि विधवा होकर जाए
माथे के बल जाए कि लात के बल जाए
अरे, तुम सिहर उठे
अभी कहाँ मेरे मित्र, अभी कहाँ
चंपे की कोमल कलियों-सी बलत्कृत बेटियों के
क्षत-विक्षत जननांगों से जब भभक पड़ता
गर्म-गर्म लाल-लाल ख़ून
और डूब जाती पुरुष-वर्ग की नाक
तो मैं पूछता-कहो भई
ख़ून में कितना नून?
ख़ून की गंध कैसी है?
ख़ून का स्वाद कैसा है?
ख़ून में लाली कितनी हैं?
ख़ून में ताप कितना है?...
मगर, मेरे मित्र
यह कोई आज ही नहीं हुआ है
कि चिल्लड़ों से भरी है
भ्रष्टाचार को गंजी की तरह पहने हमारे देश की देह
लोग तो यह भी कहते हैं
कि समुद्र-मंथन से उत्पन्न चौदह रत्न
लपक लिए देवताओं ने स्वयं
रह गया असुरों का छूछा सपना और भ्रम
शंकर भी बहोत साधते थे योग
इसीलिए न, सट गया कपाल में अभोग
हलाहल पिलाने वाले देव गण
अब तक पाँत से टालते हैं और मानव गण
माघ में भी सर्द पानी ढालते हैं
इसलिए ओ मेरे समकालीन युवा!
हाँ, ऐसे ही ठिठियाते रहो
दिल्ली का सूँघो पाद, ख़तम अभी विषाद
और बेलछी, भागलपुर, मेरठ, अलीगढ़
लेबनान, फॉकलैंड, अफ़ग़ानिस्तान और आयरलैंड की
सुबह-सुबह अख़बार से, चाय के संग चाटो बस्स
नहीं तो चढ़ोगे नज़र पर और जाओगे धस्स...
गर याद ही रखना है तो रखो—
प्रिंस एंड्रयू की प्रेमिका का नाम
कौन है अमिताभ का हजाम
अप्पूजी की हेल्थ कैसी है
सोफ़िया लारेन के पास वेल्थ कितना है
और पुन: पुन: ठिठियाते रहो
पुन: पुन: ठिठियाते रहो...।
1. उत्तरीय- श्राद्ध के अवसर पर कर्त्ता द्वारा जनेऊ की तरह पहना जाने वाला वस्त्र
2. कैंचा- पैसे
3. पैंचा-कर्ज़
4. नून-नमक
- पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 59)
- संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
- रचनाकार : कुमार पवन
- प्रकाशन : पहल प्रकाशन
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