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मैंने सोचे कई नाम

mainne soche kai nam

सुदीप बनर्जी

सुदीप बनर्जी

मैंने सोचे कई नाम

सुदीप बनर्जी

और अधिकसुदीप बनर्जी

    मैंने सोचे कई नाम उसके लिए

    मनोहरलाल, दीन मोहम्मद

    काशीनाथ, यहाँ तक कि उसे

    ज़ख़्म भी कहा

    उसने बोलकर सहा

    पर वह नहीं समाया

    प्रगट नहीं हुआ कोई पुरुषोत्तम

    जो ज़िंदगी पर सवार

    उसके सींग नहीं होते

    जो वह दिख जाए सड़क चलते

    या इसलिए ही हासिल हो

    कि आप शाइर बने

    गुज़ारा कर रहे हैं ऐसे

    बेरहम ज़माने में

    पर फिर भी अगर

    ऐसा कोई हासिल होता

    जिसको समझने में

    खुल जाता ज़िंदगी का राज़

    तो खपा ही देता यह सब

    जो शेष रहा

    नहीं कोई भी ज़िंदगी

    आसान नहीं करती

    किसी और ज़िंदगी को

    जो बरक़रार रहती है

    दमख़म से या हाँफ़ते हुए

    आसान आदतों को भी

    मुश्किल बना देती है

    पड़ोसी को समझने की कोशिश

    फिर आप बिना वजह

    ऐसे बरामदे में घूमते

    नहीं रह सकते वक़्त-बेवक़्त

    उसे और किसी नाम में क़ैद कर

    तावीज़ की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते

    मौक़े-बेमौक़े

    नहीं कोई ही इस तरह

    मेहरबान होकर

    बिछा नहीं देता उसका जीवन

    कि आपका काम बने

    हो ही सकती अगर एक कविता

    लिख देता उसे, फिर चैन से रहता

    या उसे ही लिख पाने की

    ज़हमत उठाता, मशक़्क़त करता

    ताउम्र जुस्तजू में रहता

    महज़ एक लय के लिए परेशान

    बाज़ शब्दों के बेसबब

    पास जाने के रोमांच तक

    आहिस्ता-आहिस्ता गामज़न होता

    जैसे अब तक जीवन था

    अगले ही क्षण मुर्दा शरीर

    दोनों कितने क़रीब

    ऐसा रोमांच होता

    शब्दों के क़रीब आने का

    तो कोई बात बनती

    ज़िंदगियाँ क़िस्मत में बदी हैं

    एक ही ज़िंदगी नहीं आती

    गिरफ़्त में, कोई भी

    क़ैद नहीं होता

    किसी माक़ूल नाम में

    एक कविता ही छलना है

    यों तमाम दीवान हैं

    बेहतर शाइरों के भी

    लिहाज़ा कैसी भी लय

    लफ़्ज़ों के सिमट आने के

    बेतरतीब अंदाज़ों को कविता कहकर

    झोंकता हूँ आबादियों में

    बला टालता हूँ

    रोज़मर्रा की बातों को

    मंत्रोच्चार की तरह

    दग़ा देते हुए

    कोई ईश्वर तो नहीं

    ज़ख़्मी उतना ही

    उतने ही नाम धरे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 92)
    • रचनाकार : सुदीप बॅनर्जी
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2005

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