कोई एक चेहरा भी नहीं रहा
जिसे कहूँ, तुम्हें प्यार करता हूँ
यही बात जब मैं तुम्हें कहता हूँ
तो शायद तुम नहीं होती
लेकिन वह कोई होता है, जिसे मैं जानता हूँ
सदियों पुराने उस सपने की सतह की तरह
जो मेरी नींद में खुलती है बार-बार
और कहूँ, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
जब कहता हूँ,
मुझे लगता है, यह बात मैं पहाड़ी बादलों को
कह रहा हूँ, अथवा दूरस्थ चोटियों को
जहाँ पगली बर्फ़ के साथ लिखा है मुहब्बत
शायद उन बरसात की बावरी बौछारों को
कहता हूँ—जो रुके पत्तों की हवा है ज़ोरदार
ग़ुबार होता है उनका
मस्ती के कणों से भरपूर, बरसने को आतुर
जब कहता हूँ तो मुझे वह लड़की याद आती है।
जो अपना खिलता फूल मेरी साँसों में भूल गई
और अनंत उभरे वक्ष मेरे हाथों थमाकर
महक रही थी, मैं भयभीत था...
याद आ रही है...
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ...
मुझे लगता है
मैं उन नदियों के जल को कह रहा हूँ सब
जो तुम्हारे भीतर धड़कते थे
और शायद उस समंदर से कह रहा होता हूँ
जो मैंने अपनी आँखों में पूरा सुखा लिया
अथवा उस शोर को, जो मेरे भीतर
अद्भुत आकृतियाँ धारण करता है
लेकिन कुछ नहीं होता...
और मैं प्यार करता हूँ
मुझे अब याद नहीं, तुम मुझे बचपन में मिली
पूरे यौवन में था तब, अथवा शादी की बंधन-वेला में
जब मैं पिता बना उस समय या फिर उसके बाद...
लेकिन जब कहता हूँ मैं, तुम्हें प्यार करता हूँ
तो मैं सिर्फ़ तुम्हें कह रहा होता हूँ
ये शब्द कहने के लिए, मैं तुम्हें समंदर पार मिला था
तुम्हारी मुस्कान इतनी फीकी थी कि
मैं कुछ घर पर भूल आया था...
घर लौटा ये शब्द कहे तो पत्नी खुलकर हँसी
लगा, मैं जैसे पागल हूँ
किसे क्या कहना है, याद ही नहीं रहता...
लेकिन जब मैं कहता हूँ, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
तो लगता है, कोई अमृतपान कर रहा हूँ
जो मुझमें एक छटपटाहट छोड़ गया
किसी बिछुड़े को मिलने के लिए
अरे वह तुम्हीं होती हो
जब अभावों और बारीक आँधी को पार करता हूँ
तुम जगमगाती नज़रों और चमकीली मुस्कान के साथ
मुझसे लिपट जाती हो
कहीं कोई, मेरा क़द छोटा करने लगता है
तुम वहीं आकर मुझे
बुलंद आवाज़-सी खड़ा कर देती हो
लेकिन तुम्हें कह रहा होता हूँ, मैं तुम्हें प्यार...
तो तुम उलझती, ओझल-सी होती जाती हो
उस अद्वितीय कविता की अंतिम पंक्ति के समान
जो समझ आने लगती है तो ख़त्म हो जाती है...
यह क्या अवस्था है, कि एक अद्भुत नाद मेरी नसों में
धधकता है, बस एक हूक-सी उठती है, आवाज़ देती
और मैं न सो पाता हूँ, न जाग सकता हूँ
ख़ामोश रात में अद्भुत कराह मेरी नसों, साँसों में
इंद्रियों से उभरती, फैलती, बहती, तनाव देती
बाहर पहाड़ी दिशाओं को हो लेती है
और फिर बँधी, बिखरी पंक्ति बनकर
एक अलग लय ताल शब्दों से उठती हुई
मेरे नैनों से बहने लगती है
और मेरे अंदर से एक गहरी लंबी ख़ामोशी के बाद
निकला है, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
लेकिन वह चेहरा तुम्हारा नहीं होता
तुम्हारे जैसा होता है—शायद!
- पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 495)
- संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2014
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