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मैं तो यूँ ही खड़ी थी

main to yoon hi khaDi thi

अनुवाद : वर्षादास

विनोद जोशी

विनोद जोशी

मैं तो यूँ ही खड़ी थी

विनोद जोशी

और अधिकविनोद जोशी

    खोल के किवाड़ मैं तो यूँ ही खड़ी थी

    मुझे दहलीज़ ले चली बाज़ार में...

    पहली दुकान पर बैठा तंबोली,

    उसने खिलाया जो पान;

    केसर का कत्था और चाँदनी का चूना,

    ऊपर से डाला तूफ़ान;

    यहाँ-वहाँ देखती मैं यूँ ही खड़ी थी

    लल छींटा उड़ आया सिंगार में...

    मुझे दहलीज़ ले चली बाज़ार में...

    दूसरी दुकान पर बैठा व्यापारी,

    व्यापारी तौले सामान,

    फट से तौला मुझको आँख के तराजू में,

    तौल लिया मेरा अंदाज़;

    सुध-बुध खोके मैं तो यूँ ही खड़ी थी

    परछाईं से टिकके सुनसान में...

    मुझे दहलीज़ ले चली बाज़ार में...

    तीसरी दुकान पर बैठा था धुनिया,

    धुनिया सीता रजाई,

    टाँके पर आकर बैठी एक तितली,

    सूई में बजी शहनाई;

    नाम-धाम छोड़ मैं तो यूँ ही खड़ी थी

    निपट निराधार हो भनक में...

    मुझे दहलीज़ ले चली बाज़ार में...

    चौथी दुकान पर बैठा था रंगरेज़,

    उसने जो घोला प्रकाश,

    सूरज को पीसकर चूल्ही चढ़ाया,

    ऊपर से उँड़ेला आकाश,

    रुम्मझुम्म करती मैं तो यूँ ही खड़ी थी

    अब यूँ ही खड़ी थी ख़ुमार में...

    अभी अधबर खड़ी थी ख़ुमार में...

    मुझे दहलीज़ ले चली...।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक गुजराती कविताएँ (पृष्ठ 87)
    • संपादक : वर्षा दास
    • रचनाकार : विनोद जोशी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2020

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