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मैं रातभर बड़बड़ाता रहा

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तुलसी परब

तुलसी परब

मैं रातभर बड़बड़ाता रहा

तुलसी परब

और अधिकतुलसी परब

    मैं रात भर बड़बड़ाता था

    सभी हृदय लगभग एक जैसे ही

    फिर भी उनके स्थान कितने विविध ख़ून से लथपथ

    बिंब उभर आते हैं आईने में

    और उन्हें अभिलाषा गहन मूलभूत प्रमेय की

    प्रचंड भूख के मारे एक वर्ग करता है कड़ी मेहनत

    उसका भ्रम टूटता नहीं है आसानी से

    और वह मानता है न्यायपूर्ण व्यवस्था को

    भीतर से परिपूर्ण संघर्ष को

    समारोह को व्यक्त करने वाला प्रदीर्घ ढाँचा है वर्ग।

    क्रांतिविज्ञान का आकलन होता है

    उसका पारम्परिक।

    और कई सारे महापुरुष मरने लगे हैं

    एक सरल चेतना की पहली ही परत उघड़ने लगी है।

    और आँखों के आँसुओं की झड़ी जो है लगातार

    वह है चिनगारी की उत्तुंग अभिव्यक्ति

    और हाथ जिनसे मैं पोंछता हूँ आसुओं को

    वे हैं उसकी चेतना के अलग अलग रूप

    और हाथ जो भीतर से आँसुओं की

    बलात्कारी थैली खींचकर बाहर निकालते हैं

    वे हैं अपनी करतूत के सार्थक इशारे।

    मैं रात भर बड़बड़ाता था

    और तब वह अमावस होती थी पूनम

    रात-जैसा भद्दा दिन

    दिन जैसी विभक्त रात।

    बदलती हुई आशा के पैंतरे

    बदलता था मैं रात भर उस बंद कोठरी में

    रात भर मैं अपने आप को ही क्रांतिविज्ञान सिखाकर मनवाता था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 73)
    • संपादक : चंद्रकांत पाटील
    • रचनाकार : तुलसी परब
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014

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