इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों, कार्यक्रमों, सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही था
कि सीखना है अपने को कोई ढंग
कि कविता करनी है और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्ज़ी से
यह नुस्ख़ा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्ख़ा मुझे मेरे अभिन्न साथी ने दिया था जो
कि स्वयं अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता बड़े लोगों से परिचित रूप से संबंध बनाता,
बातें करता, उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
स्वाभाविक ही उनकी ख़ुशी देखने लायक़ होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे।
इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं ही बनी।
मैं थका-हारा यह शहर छोड़कर जा चुका था
अपने गाँव की सीमा में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गाँव की उस दुकान पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो-रोकर कहने लगा
भले मानुष कविता यहाँ थी
तूने वहाँ क्या ढूँढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!
- रचनाकार : राजेंद्र देथा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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