मैं देख रहा हूँ चाँद को खिड़की में से
क्या चाहिए इस कंजूस यथार्थ को मुझसे
चाँदनी में हिलने वाली खाड़ी दूर के लाल आलिशान दिये
और खिले प्रतिबिंब जैसे हिलते हुए समूचे
मेरे धुँधले मन के भीतर से फिसलते हुए गीत
क्या चाहिए तुम्हें मुझसे
इस बौने और बेचैन मनुष्य की ओर से
जो भूल जाता है अलस्सुबह सुना हुआ सब कुछ
रात में सपना नहीं देखता और जीता है यथार्थ में
लेकिन एक पागल की तरह अपनी सभी बातें
आने जाने वाले बच्चों से लेकर कुत्तों तक कह देता है सबको
इस अकेलेपन में रोने वाले लोग देखे हैं मैंने
मैंने देखा है चंद्रमा का पूर्ण ग्रहण
मैंने उन्नीस की आयु में महानगर से विदा ली है
मैं दर-दर भटकता रहा हूँ अपनी पहचान के लिए
और क्या चाहिए मुझे मेरी ओर से
अशक्त पिनपिने जग को सहलाने वालों से
और मैं कई सारी कविताएँ लिखता हूँ
भारवाहक भाषा को छेड़ता हूँ प्रतिक्षण
क्या यह सही है कि लिखना नहीं चाहिए समझने के बाद
पहला सब समझने के बाद भी रह जाता है उसके पहले का भी
फिर भी दुरूह-जैसी भीतर की गहराई में इसलिए
क्या चाहिए तुम्हें सचमुच मुझसे
या तुम्हारी भी समझ में आया है मैं कैसे बेचैन हूँ
और मेरी हलचल की सभी दिशाएँ
बहकर मैं आ जाता हूँ तुम्हारे समीप
तुम्हारी अहसास की प्रतीक्षा तक तुम्हारे वचन तक
हाँ, मैं नहीं हूँ रोमैंटिक कवि
इसलिए मुझ पर करो पूरा साहस भरा विश्वास
इसलिए माँग लो मुझसे अविश्वसनीय
मैं झगड़ता हूँ, थक जाता हूँ, फिर भी मैं झगड़ता हूँ,
अदृश्य कल्पना से भी, कली की जड़ों से भी
मैं पहचानता हूँ, मेरे विचारों को
मार्क्स की जवानी की कोमलता
उसके बाद की उसकी खुरदरी दाढ़ी, गहन वैचारिक द्वंद्व
झुर्रियों वाला चेहरा तथा अर्थविज्ञान की छलाँग
मैं पहचानता हूँ उसे तुम्हारे कहने पर इस प्रकार
और क्या चाहिए हमें उस बेचैन मनुष्य से
कि हमें नहीं होना है फरार सिर्फ़
और रखने हैं हमारे पैर ठोस यथार्थ पर
कितना अच्छा लगता है हमेशा कि हम दोनों को भी
दैवीय पंख नहीं हैं ईश्वरीय परी के समान
तुम्हें अँजुरी नहीं है सभी कविताओं को इकट्ठा समाने के लिए
मुझे समय नहीं है पत्रों में लिखा फटा-पुराना याद करने के लिए
संवाद ख़त्म होने के बाद से शुरू हो जाता है
समय खोने पर बढ़ जाता है दुगना होकर
आज रात मैं एक सपना देखता हूँ
कि मैं मैं ही हूँ और तुम तुम हो
और कल रात तुमने भी यही सपना देखा है ना?
- पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 76)
- संपादक : चंद्रकांत पाटील
- रचनाकार : तुलसी परब
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
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