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मैं देख रहा हूँ चाँद को

main dekh raha hoon chand ko

तुलसी परब

तुलसी परब

मैं देख रहा हूँ चाँद को

तुलसी परब

और अधिकतुलसी परब

    मैं देख रहा हूँ चाँद को खिड़की में से

    क्या चाहिए इस कंजूस यथार्थ को मुझसे

    चाँदनी में हिलने वाली खाड़ी दूर के लाल आलिशान दिये

    और खिले प्रतिबिंब जैसे हिलते हुए समूचे

    मेरे धुँधले मन के भीतर से फिसलते हुए गीत

    क्या चाहिए तुम्हें मुझसे

    इस बौने और बेचैन मनुष्य की ओर से

    जो भूल जाता है अलस्सुबह सुना हुआ सब कुछ

    रात में सपना नहीं देखता और जीता है यथार्थ में

    लेकिन एक पागल की तरह अपनी सभी बातें

    आने जाने वाले बच्चों से लेकर कुत्तों तक कह देता है सबको

    इस अकेलेपन में रोने वाले लोग देखे हैं मैंने

    मैंने देखा है चंद्रमा का पूर्ण ग्रहण

    मैंने उन्नीस की आयु में महानगर से विदा ली है

    मैं दर-दर भटकता रहा हूँ अपनी पहचान के लिए

    और क्या चाहिए मुझे मेरी ओर से

    अशक्त पिनपिने जग को सहलाने वालों से

    और मैं कई सारी कविताएँ लिखता हूँ

    भारवाहक भाषा को छेड़ता हूँ प्रतिक्षण

    क्या यह सही है कि लिखना नहीं चाहिए समझने के बाद

    पहला सब समझने के बाद भी रह जाता है उसके पहले का भी

    फिर भी दुरूह-जैसी भीतर की गहराई में इसलिए

    क्या चाहिए तुम्हें सचमुच मुझसे

    या तुम्हारी भी समझ में आया है मैं कैसे बेचैन हूँ

    और मेरी हलचल की सभी दिशाएँ

    बहकर मैं जाता हूँ तुम्हारे समीप

    तुम्हारी अहसास की प्रतीक्षा तक तुम्हारे वचन तक

    हाँ, मैं नहीं हूँ रोमैंटिक कवि

    इसलिए मुझ पर करो पूरा साहस भरा विश्वास

    इसलिए माँग लो मुझसे अविश्वसनीय

    मैं झगड़ता हूँ, थक जाता हूँ, फिर भी मैं झगड़ता हूँ,

    अदृश्य कल्पना से भी, कली की जड़ों से भी

    मैं पहचानता हूँ, मेरे विचारों को

    मार्क्स की जवानी की कोमलता

    उसके बाद की उसकी खुरदरी दाढ़ी, गहन वैचारिक द्वंद्व

    झुर्रियों वाला चेहरा तथा अर्थविज्ञान की छलाँग

    मैं पहचानता हूँ उसे तुम्हारे कहने पर इस प्रकार

    और क्या चाहिए हमें उस बेचैन मनुष्य से

    कि हमें नहीं होना है फरार सिर्फ़

    और रखने हैं हमारे पैर ठोस यथार्थ पर

    कितना अच्छा लगता है हमेशा कि हम दोनों को भी

    दैवीय पंख नहीं हैं ईश्वरीय परी के समान

    तुम्हें अँजुरी नहीं है सभी कविताओं को इकट्ठा समाने के लिए

    मुझे समय नहीं है पत्रों में लिखा फटा-पुराना याद करने के लिए

    संवाद ख़त्म होने के बाद से शुरू हो जाता है

    समय खोने पर बढ़ जाता है दुगना होकर

    आज रात मैं एक सपना देखता हूँ

    कि मैं मैं ही हूँ और तुम तुम हो

    और कल रात तुमने भी यही सपना देखा है ना?

    स्रोत :
    • पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 76)
    • संपादक : चंद्रकांत पाटील
    • रचनाकार : तुलसी परब
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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