महत्वाकांक्षाएँ कर देती हैं आत्मकेंद्रित
मार देती हैं भीतर की सदभावनाएँ
दुःख-सुख भी सहजता से नहीं बाँट पाते महत्वाकाँक्षी
मृगमरीचिका की सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते...छूट जाते हैं बचपन के साथी
जवानी में घर परिवार, बुढापे में बाल-बच्चे
गहरी यंत्रणा की इन घड़ियों में बदहवास भागता महत्वाकाँक्षी
समझ नहीं पाता...जिसे पालने-पोसने में उसने अपना सब कुछ गँवाया
बचपन के साथी, ...जवानी के मीत, ...बुढ़ापे की लाठी...
वहीं महत्वाकाँक्षा उसकी तबाही का कारण बनती है
अब और किस-किस की बलि चढ़ेगी...?
- रचनाकार : सुधा उपाध्याय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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