माता-पिता-पुरोहित की त्रयी ने मिलकर
नाम तो दिया ही था उसे एक
पर लोग उसे महाराजिन बुआ कहकर पुकारते हैं
मिलाई तो गई होगी उसकी भी कुंडली कभी
कुंडली ठीक नहीं बनी होगी
या बाँची नहीं गई होगी ठीक से
वरना उसका वैधव्य दिख जाता दूर से ही
विकट ग्रहों का शमन हो गया होता
पर सारे विश्वासों के बीच वह विधवा हुई
अब मरघट की स्वामिनी है
औरतें हैं कि शवों की विदाई पर
घर की चौहद्दी में पछाड़ मार-मार कर रो रही हैं
वह है कि घाट पर सारे शवों की आमद स्वीकार कर रही है
चिताओं के बीच ऐसे टहल रही है
जैसे खिले पलाश वन में विचर रही हो
एक औरत की तरह उसके भी आँचल में दूध था
और आँखों में भरपूर पानी
अबला थी
और भी अबला हो गई होती विधवा बनकर
चाहती तो काशी की विधवाओं में बदल जाती
या चली जाती वृंदावन
पर वह चल पड़ी शमशान की ओर
काँटेदार तिमूर लकड़ी की ठसक लिए घूम रही है घाट पर
हाथ से बुने मोज़ों के ऊपर कपड़े के जूते डाल रखे हैं उसने
मोटे ऊन की कनटोप है
मुँह में गिलौरी दबाए
जलती चिताओं की बग़ल से निकलती और राख हो गई
चिताओं को लाँघती
एक से दूसरी चिता
दूसरी से तीसरी
तीसरी से चौथी
मुखाग्नि दिलवाती
कपाल क्रिया करवाती
घूम रही है वह
ख़ुद अपने मोक्ष के लिए छटपटाती एक नदी के तट को
तर्पणों का समुद्र सौंप रही है
पंडों के शहर में
मर्दों के पेशे को
मर्दों से छीनकर
जबड़े में शिकार दबाए-सी घूम रही है वह
अभी-अभी
घाट पर भी मर्द बने एक आदमी को
उसी की गुप्तांग भाषा में लथेड़ा है उसने
ठसकवालों से ठसक से वसूल रही है दाहकर्म का मेहनताना
रिक्शा-ट्राॅली में लाए शवों के लिए तारनहार हो रही है
यहीं जहाँ महाराजिन के आधिपत्य वाले घाट की सीमा शुरू होती है
उसके ठीक पहले समाप्त होती है ‘साहित्यकार संसद’ की सीमा
यहीं पर चीन्हा गया होगा महीयसी द्वारा
असीम और सीमा का भ्रम
यहीं उफनती नदी के सामने गाया गया होगा कभी
महाप्राण द्वारा बादल-राग
यहीं कविता ने देखा होगा एक युगांत....
तट से दूर उभर आए रेतीले टापू के एकांत में सरपती बाड़ के पीछे
रसीली कल्पनाओं के उद्यम में सहभागी एक ट्रांजिस्टर में
मेघ मल्हार बज रहा है
महाराजिन सशंकित हो ताकने लगी है आकाश
अधजली चिताएँ उसे सोने नहीं देतीं रात भर
उसकी तो पसंद है दीपक राग
उसने अभी-अभी मुखाग्नि दिलवाई है एक विधवा की चिता को
एक विधवा, दूसरी विधवा के शव को जलवाते हुए
अतीत में दबीं अनंत विधवाओं की
अयाचित चिताओं की चीख़ें सुन रही है
घाट के ढलान पर
उम्र की ढलान लिए
दिन भर सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है
मनु की प्रपौत्री वह
असूर्यम्पश्या
तीर्थराज प्रयाग को जोड़ने वाले
एक दीर्घ पुल
और परंपरा के तले...
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महाराजिन बुआ इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर दाहकर्म संपन्न कराती रहीं। कुछ वर्ष पूर्व उनका निधन हो गया है। यह कविता उनके पौरुष को समर्पित है।
- रचनाकार : हरीशचंद्र पांडे
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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