महानगरों में जन्मे बच्चे
mahanagron mein janme bachche
महानगरों में जन्में बच्चे
नहीं जानते अपने पुरखों के गाँवों के नाम
उनके मम्मी-पापा नौकरी की दौड़ती ज़िंदगी में
उन्हें बता नहीं पाते इस आशंका से
कि कहीं इनका न हो जाए स्याह जीवन
गाँव की धूल भरी हवा में सर्द पड़ जाएँगे इनके चेहरे
वहाँ की भदेसी बोली की लपक
छीन लेगी इनकी अंग्रेजियत
इनका रहन-सहन खो न जाए उस रेतीली दुनिया में
महानगरों में जन्में बच्चों ने
कभी नहीं देखा तारों भरा आकाश
भोर में उगता सूरज, क्षितिज की ओर
खिसकता सूर्यास्त
चमकता चाँद, ओस से भीगी अगहन की रात
नहीं सुनी बगीचे में कोयल की कूक, पीछे की पी, मुर्गों की बाँग
वह पढ़ता है अपनी किताबों में
कि खेती करते हैं किसान
पर उसने कभी नहीं देखे खेत, खलिहान
धनरोपनी करती औरतें, गाँव की नदी
धार में तैरती मछलियाँ, किनारे खड़ा जामुन का वृक्ष
गृहचर्चा, फ़ोन वार्ताओं में जब कभी आता है गाँव
अपना होम वर्क करते हुए सुनते हैं बच्चे
डैड मॉम की बातें
कि गाँव के कपटी राक्षस कहीं लूट न लें
उनके घर-खेत-आँगन
पैतृक भूमि पर गवईं जीवन से अबोध
इन बच्चों के अधिकार
महानगरों में रचे बसे बच्चे बस इतना ही जानते हैं
कि गाँव बसता है शहर किनारे
बसी झुग्गी-झोपड़ियों में
जहाँ से आती है सड़न की बू
अनाज किसान के खेतों में नहीं उपजता
वह आता है किराने की दुकान से,
तराजू पर तौक़ा जाता हुआ
दूध गाय और भैंसे नहीं देतीं,
वह मिलता है सुधा डेयरी पर
जैसे सब्जियाँ मिल जाती हैं ठेले वाले से
महानगर में जन्में बच्चों के लिए
गाँव वाला के स्कूल फाटक पर खड़ा दरबान है
शहरी ताम झाम के लकदक के बीच
नर्वस, सहमा-सहमा-सा!
- रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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